Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary – Bharat Ram Ka Prem, Tulsidas Ke Pad Summary Vyakhya

भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary

भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद – तुलसीदास – कवि परिचय

प्रश्न :
तुलसीवास के जीवन का संक्षिप्त परिचय वेते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : तुलसीदास सचमुच हिंदी साहित्य के जाज्वल्यमान सूर्य हैं; इनका काव्य-हिंदी साहित्य का गौरव है। गोस्वामी तुलसीदास रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। वैसे वे समूचे भक्ति काव्य के प्रमुख आधार-स्तंभ हैं। उन्होंने समस्त वेदों, शास्त्रों, साधनात्मक मत-वादों और देवी-देवताओं का समन्वय कर जो महान् कार्य किया, वह बेजोड़ है।

कहा जाता है कि तुलसीदास का जन्म सन् 1532 ई. में बाँदा जिले (उ. प्र.) के राजापुर नामक गाँव में हुआ धा। उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। ये मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे। इस नक्षत्र में बालक का जन्म अशुभ माना जाता है। इसलिए उनके माता-पिता ने उन्हें जन्म से ही त्याग दिया था। इसी के कारण बालक तुलसीदास को भिक्षाटन का कष्ट उठाना पड़ा और मुसीबत भरा बचपन बिताना पड़ा।

कुछ समय उपरांत बाबा नरहरिदास ने बालक तुलसीदास का पालन-पोषण किया और उन्हें शिक्षा-दीक्षा प्रदान की। तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की सुपुत्री रत्नावली से हुआ। पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्ति होने के कारण एक बार वे पत्नी के मायके जाने पर उसके पीछे-पीछे ससुराल जा पहुँचे थे। तब पत्नी ने उन्हें फटकारते हुए कहा थालाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ। घिक-धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथा। अस्थि चर्ममय देह मम, तामैं ऐसी प्रीति। ऐसी जो श्रीराम में, होति न भवभीति॥

पत्नी की इस फटकार ने पत्नी-आसक्त विषयी तुलसी को महान् रामभक्त एवं महाकवि बना दिया। उनका समस्त जीवन प्रवाह ही बदल गया। इसे सुनने के पश्चात् सरस्वती के वरद् पुत्र की साधना प्रारंभ हो गई। वे कभी चित्रकूट, कभी अयोध्या तो कभी काशी में रहने लगे। उनका अधिकांश समय काशी में ही बीता। रामभक्ति की दीक्षा उन्होंने स्वामी रामानंद से प्राप्त की और उन्हें अपना गुरु माना। उन्होंने काशी और चित्रकूट में रहकर अनेक काव्यों की रचना की। उन्होंने श्रमण भी खूब किया। सन् 1623 ई. (सम्वत् 1680 वि.) को श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन तुलसीदास ने काशी के असीघाट (गंगा तट) पर प्राण त्यागे थे। उनकी मृत्यु के बारे में कहा जाता है-

संवत् सोलह सौ असी, असि गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तजौ शरीर।

रचनाएँ : ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास द्वारा रचित विश्व-प्रसिद्ध रचना है। उनके द्वारा रचित ग्रंधों की संख्या 40 तक बताई जाती है. पर अब तक केवल 12 रचनाएँ प्रामाणिक सिद्ध हो सकी हैं; इनके नाम हैं-
(1) रामलला नहछ्छू, (2) वैराग्य संदीपनी, (3) बरवै रामायण, (4) रामचरितमानस, (5) पार्वती मंगल, (6) जानकी मंगल, (7) रामाज्ञा प्रश्नावली, (8) दोहावली, (9) कवितावली, (10) गीतावली, (11) श्रीकृष्ण गीतावली (12) विनय-पत्रिका। ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास का सबसे वृछद् और सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। विश्व साहित्य में इसका उच्च स्थान है। ‘कवितावली’, ‘गीतावली’ और ‘श्रीकृष्ण गीतावली’ तुलसीदास की सुंद्र और सरस रचनाएँ हैं। ‘विनय-पत्रिका’ में भक्त तुलसीदास का दार्शनिक रूप उच्च कोटि के कवित्व के रूप में सामने आया है। ‘दोहावली’ में तुलसीदास की सूक्ति शैली है। ‘बरवै रामायण’ और ‘रामलला नहछू’ ग्रामीण अवधी की मिठास लिए तुलसी की प्रतिभा के सुंदर उदाहरण हैं।

साहित्यिक विशेषताएँ : तुलसीदास का साहित्य भारतीय साहित्य का ही नहीं, विश्व साहित्य का गौरव है। अपने साहित्य में तुलसीदास ने दार्शनिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा वैयक्तिक आदर्शों को इतनी व्यापकता से प्रतिपादित किया है कि विदेशी विचारक भी उन्हें ‘सबसे बड़ा लोकनायक’ मानने को विवश हो गए हैं।

तुलसीदास की भक्ति-भावना लोक मंगलमयी और लोक संग्रहकारी है। तुलसीदास जन-जन के ऐसे कवि हैं जो लोकनायक और राष्ट्रकवि का दर्जा पाते हैं। तुलसीदास की रचनाओं, विशेषत: ‘रामचरितमानस’ ने समग्र हिंदू जाति और भारतीय समाज को राममय बना दिया। तुलसीदास ने राम में सगुण तथा निर्रुण का समन्वय करते हुए उनके शील, शक्ति और सौंदर्य के समन्वित स्वरूप की प्रतिष्ठा करके भारतीय जीवन और साहित्य को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भक्ति भावना की दृष्टि से भी तुलसीदास जी ने समन्वयवादी दृष्टि का परिचय दिया है। राम को ही एकमात्र आराध्य मानकर तुलसी ने चातक को आदर्श बनाया-

एक भरोसो एक बल, एक आस, बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।

कला पक्ष : तुलसीदास के काव्य का कलापक्ष अत्यंत सुदृढ़ है। तुलसीदास बहुमुखी प्रतिभा के कवि हैं। हिंदी में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों का उन्होंने अत्यंत सफल प्रयोग किया है। क्या प्रबंध काव्य-शैली, क्या मुक्तक काव्य-सबके सृजन में उन्होंने महारत हासिल की। उनका ‘रामचरितमानस’ तो प्रबंध पद्धति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता ही है, वह उच्च कोटि का महाकाव्य भी है। उनकी कवितावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि और भी कई रचनाओं में उनकी प्रबंध शैली का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। विनयपत्रिका, दोहावली आदि में तुलसी की मुक्तक काव्य-शैली का उत्कर्ष दिखाई देता है। ‘विनय-पत्रिका’ जैसी मुक्तक पद-शैली का चरमोत्कर्ष अन्यत्र कहाँ है ?

तुलसीदास ने सभी प्रचलित छंद-शैलियों का प्रयोग किया है-दोहा-चौपाई शैली, सोरठा, बरवै, कवित्त, सवैया शैली, छप्पय शैली आदि सभी का सफल प्रयोग उनके साहित्य में मिलता है। रामचरितमानस की रचना दोहा-चौपाई छंद-शैली में है। ‘गीतावली’, ‘कृष्ण गीतावली’ तथा ‘विनय-पत्रिका’ गेयपद शैली की रचनाएँ हैं। ‘कवितावली’ कवित्त-सवैया छंद में रचित उत्कृष्ट रचना है।

अलंकारों की दृष्टि से तुलसी का काव्य अत्यंत समृद्ध है। उन्होंने सांगरूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का सुष्ठ प्रयोग किया है। सांगरूपक का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।

अनुप्रास की छटा देखिए-

तुलसी असमय के सखा, धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत, राम भरोसो एक ॥

तुलसीदास का काव्य रसों की दृष्टि से तो गहन-गंभीर सागर है। ‘रामचरितमानस’ में भक्ति, वीर, शृंगार, करुण, वात्सल्य, वीभत्स, शांत, अद्भुत, भयानक, रौद्र, हास्य आदि सभी रसों का उदात्त, व्यापक एवं गह़न चित्रण हुआ है। कुछ अन्य उदाहरण द्रष्टव्य हैं

शृंगार रस –

देखि-देखि रघुवीर तन उर मनाव धरि धीर।
भरे विलोचन प्रेमजल पुलकावलि शरीर।

वीर रस –

जौ हैं अब अनुसासन पावौं
तो चंद्रमहि निचोरि घैल ज्यौं, आनि सुधा सिर नावौं।

शांत रस –

अब लौ नसानी, अब न नसैहोें।

इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि तुलसीदास हिंदी साहित्य के अप्रतिम कवि हैं। रामभक्ति की जो अजस्र धारा उन्होंने प्रवाहित की वह आज तक सहदयजनों एवं भक्तों को रस-प्लावित करती आ रही है। तुलसी के बिना हिंदी साहित्य अधूरा है।

भाषा : तुलसी का अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। उनकी रचना ‘रामचरितमानस’ (महाकाष्य) अवधी भाषा में है तो ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘ विनयपत्रिका’ आदि रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं।

Bharat Ram Ka Prem, Tulsidas Ke Pad Class 12 Hindi Summary

1. भरत-राम का प्रेम : पाठ्यपुस्तक में प्रस्तुत चौपाई और दोहों को ‘रामचरित मानस’ से लिया गया है। इन छंदों में राम वन गमन के पश्चात् भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है। भरत भावुक हदय से बताते हैं कि राम का उनके प्रति अत्यधिक प्रेमभाव है। वे बचपन से ही भरत को खेल में भी सहयोग देते रहते थे और उनका मन कभी नहीं तोड़ते थे। वे कहते हैं कि इस प्रेमभाव को भाग्य सहन नहीं कर सका और माता के रूप में उसने व्यवधान उपस्थित कर दिया। राम के वन गमन से अन्य माताएँ और अयोध्या के सभी नगरवासी अत्यंत दु:खी हैं। इस प्रसंग में भरत का राम के प्रति श्रद्धाभाव और अपने प्रति परिताप का भाव प्रकट होता है। इस प्रसंग से श्रीराम एवं भरत दोनों के चरित्र स्पष हो जाते हैं। इसमें भरत में अहंकार न होने का भाव प्रकट होता है।

2. पद : इस अंश में ‘गीतावली’ के दो पद दिए गए हैं जिनमें से प्रथम पद में राम के वन गमन के बाद माता कौशल्या के ढदय की विरह-वेदना का वर्णन किया गया है। वे राम की वस्तुओं को देखकर उनका स्मरण करती हैं और बहुत दुःखी हो जाती हैं। वे राम के बच्चपन का भी स्मरण करती हैं। राम के धनुष-बाण तथा जूतियों को देखकर भी भाव-विहलल हो उठती हैं। ।ूसरे पद में माँ कौशल्या राम के वियोग में दुखी अश्वों को देखकर राम से एक बार पुनः अयोध्यापुरी आने का निवेदन करती हैं। वे अश्वों की गिरती दशा का वर्णन करके राम को अयोध्या बुलाती हैं। उनको अंदेशा है कि कहीं अपने स्वामी के स्नेह स्पर्श के अभाव में ये अश्व दम न तोड़ दें।

भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद सप्रसंग व्याख्या

भरत-राम का प्रेम – 

1. पुलकि समीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊा अपराधिढ़ पर कोह न काऊ।
मो पर कृपा सनेह बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।
सिसुपन तें परिहरेजँ न संगू। कबहुँ न कीन मोर मन भंगू।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेंहु खेल जितावहिं मोही।
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तुपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।

शब्बार्थ : पुलकि = पुलकित होकर। समीर = हवा। ठाढ़े – खड़े हो गए। नीरज = कमल। नयन = नेत्र। मोर = मेरे। निज = अपना। सुभाऊ = स्वभाव। सनेह – स्नेह। बिसेखी = विशेष। खुनिस = क्रोध, अप्रसनता। सिसुपन = बालपन। बैन = वचन। तृषित = प्यासा। पेम पिआसे – प्रेम प्यासे।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक कवि गोस्वामी वुलसीदास द्वारा रचित महाकाष्य ‘रामचरित मानस’ के ‘अयोध्याकांड’ से अवतरित हैं। इनमें राम के बन-गमन के पश्चात् भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है। भरत राम के बन चले जाने के उपरांत उनसे भेंट करने वन में जाते हैं। श्रीराम भरत की बड़ी प्रशंसा करते हैं। तब मुनि वशिष्ठ ने भरत से कहा कि तुम अपना संकोच छोड़कर अपने हददय की बात दया के सागर श्रीरम से स्वयं कहो। मुनि की आज्ञा सुनकर और श्रीराम का अनुकूल रुख पाकर भरतजी विचार करने लगे।

व्याख्या : भरतजी शरीर से पुलकित होकर सभा में खड़े हो गए। उनके कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। वे बोले-मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया अर्थात् जो कुछ मैं कहना चहता था वह उन्होंने ही कह दिया। इससे अधिक मैं क्या कहूँ ? मैं अपने स्वामी का स्वभाव भली प्रकार जानता हूँ। वे तो अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी अप्रसन्नता नहीं देखी। मैंने बचपन से उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी कभी मेरे मन को नहीं तोड़ा। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को भलीभाँति देखा है। वे खेलने में मेरे हारने पर भी मुझे जिता देते थे।

मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी अपना मुँह नहीं खोला अर्थात् कुछ नहीं कहा। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शनों से तृप्त नहीं हुए हैं। आज भी मेरी आँखें तलाशती रहती है।

विशेष :

  • भरत की विनम्रता की अभिव्यक्ति हुई है।
  • भरत का राम के प्रति अनन्य प्रेम अभिव्यक्त हुआ है।
  • यह वर्णन भक्ति रस को निर्मल गंगा का प्रतीक है।
  • ‘नीरज नयन’ में रूपक एवं अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘खेलते खुनिस’ तथा ‘सनेह सकोच’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा : अवधी।
  • छंव : चौपाई-दोहा।
  • रस-शांत।

2. बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नींच बीचु जननी मिसु पारा।
यहड कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि कोभा।
मातु मंदि भइँ साथु सुचाली। उर सन आनत कोटि कुचाली।
फर कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।
बिनु समझें निज अघ परिपाकू। जारिडँ जायँ जननि कहि काकू।
ह्वदयँँ हेरि हारेउँ सब ओराँ। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।
गुरु गोसाँइ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥
साधु सभाँ गुरु प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहि मुनि रघुराउ।

शब्दार्थ : बिधि = भाग्य। मोर = मेरा। मिसु = बहाना। जननी = माता। सुचि = पवित्र। मातु = माता। उर = हृदय। कुचाली = बुरी चाल। कोवव = मोटा चावल। बालि = बाल। मुसाली = धान। मुकुता = मोती। संबुक = घोंघा। उदधि = समुद्र। अवगादू = डूबना। अय = पाप। काकू = कटुवचन। नीक = ठीक, सही। निकट = पास।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्याकांड’ से अवतरित हैं। राग. वन-गाम के पश्चात् भरत उनसे भेंट करने वन में जाते हैं। उनके साथ माताएँ, गुरु वशिष्ठ तथा अन्य अयोध्यावासी हैं। यहाँ भरत मुनि वशिष्ठ के कहने पर अपने बड़े भाई राम के प्रति अपने आदर-श्रद्धापूर्ण उद्गार प्रकट कर रहे हैं।

व्याख्या : भाव विह्लल होकर भरत कहते हैं कि विधाता को श्रीराम का मेरे प्रति दुलार सहन नहीं हो सका। उसबे (विधाता ने) पड्यंत्र करके मेरी माता का बहाना लेकर मेरे तथा मेरे स्वामी के बीच अंतर डाल दिया। मुझे आज यह कहना शोभा तो नहीं देता क्योंकि अपनी समझ में कौन साधु और कौन पवित्र है, यह कहा नहीं जा सकता। इसका निर्णय दूसरे लोग ही करते हैं अर्थात् माता नीच है और मैं सदाचारी या साधु हूँ. ऐसी बात हदयय में लाना भी करोड़ों दुराचारों के समान है।

मैं स्वप्न में भी किसी को दोष देना नहीं चाहता। क्या कोदों की बाली से उत्तम धान पैदा हो सकता है ? क्या काली घोंघी उत्तम कोटि के मोती उत्पन्न कर सकती है? अर्थात् नहीं। वास्तव में मेरा दुर्भाग्य ही अथाह समुद्र और प्रबल है। मैंने अपने पूर्व जन्म के पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कदु वचन कहकर उन्हें बहुत जलाया या दुखी किया है। मैंने अपने हृदय में बहुत खोज की, पर सब ओर ढूँढकर मैं हार गया हूँ। मुझे भलाई का कोई साधन नहीं सूझता। निश्चित रूप से केवल एक ही प्रकार से मेरा भला हो सकता है और वे हैं मेरे गुरु महाराज सर्व समर्थ हैं और मेरे स्वामी सीताराम हैं। इन्हीं के द्वारा मुझे अच्छे परिणाम की आशा बँध रही है।

भरत कहते हैं : साधुओं (सज्जनों) की सभा में गुरुजी और स्वामी जी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। मेरा यह कथन प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट), झूठ या सच, इस बात को मुनि वशिष्ठ जी और श्री रघुनाथ जी भली प्रकार जानते हैं।

विशेष :

  • भरत जी अपनी इस स्थिति के लिए विधाता को दोषी ठहराते हैं।
  • दृष्टांत अलंकार (मुकुता ………. काली) का सटीक प्रयोग है।
  • अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है- मातु मंदि, समुझि साधु, सुचि, जारहिं जायँ जननि, गुरु गोसाँइ, साहिब सिय आदि।
  • भाषा : अवधी।
  • छंब : चौपाई-दोहा।
  • रस : करुण रस।

3. भूपति मरनु पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।
देखिन जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिऊँ सब सूला।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि वेष लखनु सिय साथा।
बिन पानहिन्ह पयादे हि पाएँ। संकरु साखि रहेऊँ साखि रहेऊँ ऐहि घाएँ।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भएक न बेहू।
अब सबु आँखिन देखेडँ आई। जिअत जीव जड़ सबड सहाई।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछीं। तजहिं विषम बिषु तापस तीछं।।
तेई रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुःख दैव सहावड काहि।।

शब्दार्थ : भूपति = राजा। जननी = माता। कुमति = बुरी बुद्धि। साखी = साक्षी। बिकल = बेचैन। महतारीं = माताएँ। महीं = पृथ्वी। सकल. = सारी। सूला = शूल, काँट।। गवनु = जाना। पानहिन्ह = जूते, चप्पल। पयादेहि = पैदल। संकरू = शंकरा निहारि = देखकर। कुलिस = कठोर। उर = हृदय। बेहू = भेदन। निरखि = देखकर। मग = रास्ता। बीछी = बिच्छू। तजहिं = त्यागना। विषु = विष।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्याकांड’ से अवतरित हैं। राम वन-गमन के पश्चात् भरत उनसे भेंट करने वन में जाते हैं। उनके साथ माताएँ, गुरु वशिष्ठ तथा अन्य अयोध्यावासी हैं। यहाँ भरत मुनि वशिष्ठ के कहने पर अपने बड़े भाई राम के प्रति अपने आदर-श्रद्धापूर्ण उद्गार प्रकट कर रहे हैं।

व्याख्या : भरत जी कहते हैं-राजा के मरण ने उनके प्रेम के प्रण की लाज रख ली। महाराज के मरने और माता की कुबुद्धि का साक्षी तो सारा संसार है। माताएँ व्याकुल हैं और उनकी यह दशा देखी नहीं जाती। अवधपुरी के समस्त नर-नारी दुसह (कठिन) ताप से जल रहे हैं। भरत जी कहने लगे-मैं ही इन सब अनर्थों का मूल हूँ, यह सब सुन और समझकर ही सब दुझख सहा है। श्री रघुनाथ जी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का सा वेष धारण करके, बिना जूता पहने ही पैदल ही वन को चले गए, यह सुनकर मैं घाव से जीवित रह गया, इसके साक्षी शंकरजी हैं। (यह सुनते ही मेरे प्राण क्यों न निकल गए)।

फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी मेरे वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)। यह निश्चय ही पत्थर से भी सख्त है। यह़ाँ आकर मैंने सब अपनी आँखों से देख लिया है। इस मूर्ख जड़ जीव के जीते-जी सब सहना पड़ा। रास्ते के साँप और बिच्छू भी जिनको देखकर अपने भयानक विष और तीक्ष्ण क्रोध को त्याग देते हैं।

वही श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु मालूम हुए, उस कैकेयी के पुत्र को (मुझको) छोड़कर दैव और किसे कठिन दुःख सहावेगा।

विशेष :

  • भरत की भावाकुल दशा का मार्मिक अंकन हुआ है। वे प्रायश्चित करते जान पड़ते हैं।
  • ‘पायहिन्द पयादेहि’, ‘ निहारि निषाद’, ‘कुलिस कठिन’, ‘जिअत जीव जड़’, ‘विषम विषु’ आदि स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • भाषा-अवधी
  • छंद-चौपाई-दोहा

पद – 

1. जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार-बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ॥
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
“उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे॥”
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भड जाहु भूप पहँँ, भैया।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया।”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
तुलसिदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥

शब्दार्थ : जननी = माता। निरखति = देखती है। धनुहियाँ = धनुष। उर = हुदय। नैननि = आँखों से। पनहियाँ = जूते। सवारे = सुबह। बदन = मुख। अनुज = छोटे भाई। सखा = मित्र। भूप = राजा। चित्रलिखी सी = चित्र के समान। सिखी = मोरनी।

प्रसंग : प्रस्तुत अंश रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘गीतावली’ से अवतरित है। इसमें कवि ने राम के वन-गमन के बाद माता कौशल्या की हदय-वेदना का मार्मिक अंकन किया है। माता कौशल्या राम से संबंधित वस्तुओं को देखकर अपने पुत्र राम का स्मरण करती हैं और दु:खी हो जाती हैं। कवि तुलसीदास बताते हैं-

व्याख्या : माता कौशल्या राम के बचपन की चीजों को देखकर और स्मरण करके अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं। ये चीजें उनकी वेदना को बढ़ाने में उद्दीपन का काम करती हैं। वे श्रीराम के बचपन के छोटे-छोटे धनुष बाण को देखती हैं। श्रीराम की शैशवकालीन जूतियों को देखकर उन्हें बार-बार अपने ह्वदय और नेत्रों से लगाती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि अब उनके पुत्र श्रीराम यहाँ नहीं हैं और वे पहले की तरह प्रिय वचन बोलती हुई राम के शयन कक्ष में जाती हैं और उन्हें जगाते हुए कहती हैं- हे पुत्र! उठो। तुम्हारी माता तुम्हारे मुख पर बलिहारी जाती है।

उठो, दरवाजे पर तुम्हारे सभी सखा और अनुज खड़े होकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। कभी वे कहती हैं-भैया, महाराज के पास जाओ, तुम्हें बहुत देर हो गई है। अपने भाइयों तथा साथियों को बुला लो, जो रुचिकर लगे वह खा लो। तुम्हारी माँ तुम पर न्यौछावर जाती है। किंतु जैसे ही उनको स्मरण होता है कि राम यहाँ नहीं हैं, वे तो वन को चले गए हैं, तब वे चित्रवत् होकर रह जाती हैं अर्थात् चित्र के समान स्तब्ध और चकित रह जाती हैं। तुलसीदास जी का कहना है कि माता कौशल्या की इस स्थिति का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उनकी दशा तो उस मोरनी के समान है जो प्रसन्न होकर नाचती रहती है, पर जब अंत में वह अपने पैरों की ओर देखती है तो रो पड़ती है। यही दशा कौशल्या की है।

विशेष :

  • माता कौशल्या की अर्धविक्षिप्तावस्था का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • वात्सल्य रस का प्रभावी चित्रण है।
  • श्रीराम की वस्तुएँ विरह-व्यथा को बढ़ाती हैं अत: वे उद्दीपन का काम करती हैं।
  • ‘चकि चित्रलिखी’, ‘जाइ जगावति’, ‘ज्यो जाइ’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘चि रलिखी-सी’, ‘सिखी-सी’ में उपमा अलंकार है।
  • बार-बार में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

2. राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ॥
जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसरे॥
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे॥
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो॥

शब्दार्थ : बाजि-घोड़ा। बिलोकि = देखकर। कर-पंकज = हाथ रूपी कमल। राघौ = राम। बर = श्रेष्ठ, सुंदर। पय = पानी। सार = देखभाल। झाँवरे = कुम्हलाने। मनहु- मानो। हिममारे = बर्फ के मारे। मातु = माता। अंदेसो = अंदेशा। पोखि-सहलाना, प्यार करना।

प्रसंगः प्रस्तुत पद हमारी पाठ्ययुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित है। इसे तुलसीदास की रचना ‘गीतावली’ से अवतरित किया गया है। राम वन में हैं। उनके वियोग में माता कौशल्या तो दुखी है ही, साथ ही उनका प्रिय अश्व अत्यंत दुर्बल हो गया है। माता कौशल्या अश्व के बहाने राम को एक बार अयोध्या लौट आने का निवेदन करती है।

व्याख्या : माता कौशल्या राम के वन-गमन से दुखी हैं। राम से संबंधित चीजों को देखकर उनकी व्यथा और भी बढ़ जाती है। राम के अश्व की दशा उनसे देखी नहीं जाती। वे कहती हैं – हे राघव! तुम एक बार अयोध्या लौट आओ। एक बार अपने प्रिय घोड़े को देखकर फिर पुन: वन को भले ही चले जाना। जिस घोड़े को तुम अपने कमल रूपी कोमल हाथों से सहलाते थे, बार-बार पुचकारते थे. जल पिलाते थे, वह घोड़ा तुम्हारे विरह में दुखी है। है मेरे लाडले राम ! भला वह तुम्हारे बिना जीवित क्यों रहे ? तुमने तो उसे पूरी तरह से भुला दिया है। यह तुम्हारा सबसे प्रिय घोड़ा था, इसी बात का विचार करके भरत इसकी सौ गुनी देखभाल करते हैं फिर भी यह घोड़ा मुरझाता चला जा रहा है। यह सुस्त हो गया है और ऐसे शिथिल हो गया है मानो कमल पर हिमपात हो गया हो (पाला पड़ने से कमल मुरझा जाता है)। माता कौशल्या पथिक को संबोधित करके कहती है – हे पथिक । यदि वन में तुम्हें कहीं राम मिल जाएँ तो उनसे मेरा यह संदेश दे देना कि मुझे इन घोड़ों की बड़ी चिंता रहती है। अतः वे एक बार आकर इन्हें सांत्वना दे जाएँ।

विशेष :

  • माता कौशल्या अश्व के बहाने राम को देखना चाह रही है।
  • वात्सल्य रस के वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • ‘कर-पंकज’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘तदपि ……. हिम मारे’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है- बर बाजि, बतुरो बनहि, सौगुनि सार।
  • ‘वार-वार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

Leave a Comment

error: Content is protected !!
download gms learning free app now