Class 12 Hindi Antra Chapter 5 Summary – Ek Kam, Satya Summary Vyakhya

एक कम, सत्य Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 5 Summary

एक कम, सत्य – विष्णु खरे – कवि परिचय

प्रश्न :
विष्णु खरे के जीवन का परिचय वेते हुए उनके साहित्यिक जीवन एवं रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिघय : विष्णु खरे का जन्म 1940 ई. में छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश में हुआ। क्रिश्चियन कॉलेज, इंदौर से 1936 में उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया। 1962-63 में दैनिक ‘ इदौर समाचार’ में उप संपादक रहे। 1963-75 तक मध्य प्रदेश तथा दिल्ली के महाविद्यालयों में अध्यापन से भी जुड़े। इसी बीच 1966-67 में लघु-पत्रिका ‘व्यास’ का संपादन किया। तत्पश्चात् 1976-84 तक साहित्य अकादमी में उप सचिव (कार्यक्रम) पद पर पदासीन रहे। 1985 से नवभारत टाइम्स में प्रभारी कार्यकारी संपादक के पद पर कार्य किया। बीच में लखनऊ संस्करण तथा रविवारीय ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ (हिंदी) और अंग्रेजी टाइम्स ऑफ इंडिया में भी संपादन कार्य से जुड़े रहे। 1993 में जयपुर नवभारत टाइम्स के संपादक के रूप में भी कार्य किया। इसके बाद जबाहर लाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में दो वर्ष वरिष्ठ अध्येता रहे। अब स्वतंत्र लेखन तथा अनुवाद कार्य में रत हैं।

साहित्य-सेवा : औपचारिक रूप से उनके लेखन प्रकाशन का आरंभ 1956 से हुआ। पहला प्रकाशन टी. एस. इलियट का अनुवाद ‘मरू प्रदेश और अन्य कविताएँ’ 1960 में! दूसरा कविता संग्रह ‘एक गैर-रूमानी समय में’ 1970 में प्रकाशित हुआ। तीसरा संग्रह ‘खुद अपनी आँख से’ 1978 में, चौथा ‘सबकी आवाज के पर्दे में’, 1944 में पाँचवाँ ‘पिछला बाकी’ तथा छठवाँ ‘काल और अवधि के दरमियान’ प्रकाशित हुए। एक समीक्षा-पुस्तक ‘आलोचना की पहली किताब’ 1983 में प्रकाशित।

रचनाएँ : उन्होंने विदेशी कविताओं का हिंदी तथा हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद अत्यधिक किया है। उनको फिनलैंड के राष्ट्रीय सम्मान ‘नाइट ऑफ दि आर्डर ऑफ दि द्वाइट रोज’ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त रघुवीर सहाय सम्मान, शिखर सम्मान हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘साहित्यकार सम्मान’, मैधिलीशरण गुप्त सम्मान मिल चुका है। इनकी कविताओं में भाषा के माध्यम से अभ्यस्त जड़ताओं और अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध सशक्त नैतिक स्वर को अभिव्यक्ति दी गई है।

Ek Kam, Satya Class 12 Hindi Summary

1. एक कम कविता के माध्यम से कवि ने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में प्रचलित हो रही जीवन-शैली को रेखांकित किया है। आजादी हासिल करने के बाद सब कुछ वैसा ही नहीं रहा जिसकी आजादी के सेनानियों ने कल्पना की थी। पूरे देश का या कहें आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का मोहभंग हुआ। यह कहना ज्यादा बेहतर है कि पहले हम दूसरे देश के लोगों के द्वारा छले जा रहे थे और आजादी के बाद अपने ही लोगों द्वारा छले जाने लगे।

परिणाम यह हुआ कि आपसी विश्वास, परस्पर भाई-चारा और सामूहिकता का स्थान धोखाधड़ी, आपसी खींचतान ने ले लिया और नितांत स्वार्थपरकता का माहौल बनता चला गया। स्थिति बद से बदतर होती गई। यह पतनोन्मुख यात्रा अभी भी जारी है। हालात ऐसे हैं कि जो ईमानदार है वह एक चाय या दो रोटी के लिए भी समर्थ नहीं है और दूसरों के आगे हाथ फैलाने को विवश है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि आज आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील समाज की संकल्पना में धोखेबाजी और निर्लज्जता आ जुड़े हैं। ऐसे समाज में ईमानदार लोगों की भूमिका नगण्य हो गई है।

कवि इस माहौल में स्वयं को असमर्थ पाते हुए भी ईमानदारों के प्रति अपनी सहानुभूति स्पष्ट रूप से रखता है तथा कुछ न करने की स्थिति में होने के बावजूद स्वयं को ऐसे लोगों के जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनाना चाहता। इसलिए वह कम-से-कम एक व्यवधान तो कम कर ही सकता है जो कि वह करता है, यही कविता का संदेश भी है।

2. सत्य कविता में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों और पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट करना चाहा है। अतीत की कथा का आधार लेकर अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कही जा सकती है, यह कविता इसका प्रमाण है। युधिष्ठिर, विदुर और खांडवप्रस्थ-इंद्रस्थस के द्वारा सत्य को, सत्य की महत्ता को ऐतिहासिक परिंप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करना ही यहाँ कवि का अभीष्ट है।

जिस समय और समाज में कवि जी रहा है उसमें सत्य की पहचान और उसकी पकड़ कितनी मुश्किल होती जा रही है यह कविता उसका प्रमाण है। सत्य कभी दिखता है और कभी ओझल हो जाता है। आज सत्य का कोई एक स्थिर रूप आकार, या पहचान नहीं है जो उसे स्थायी बना सके। सत्य के प्रति संशय का विस्तार होने के बावजूद वह हमारी आत्मा की आंतरिक शक्ति है-यह भी इस कविता का संदेश है। उसका रूप वस्तु, स्तिति और घटनाओं, पात्रों के अनुसार बदलता रहा है। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है वही शायद दूसरे के लिए सत्य नहीं है। बदलते हालात और मानवीय संबंधों में हो रहे निरंतर परिवर्तनों से सत्य की पहचान और उसकी पकड़ मुश्किल होते जाने के सामाजिक यधार्थ को कवि ने जिस तरह ऐतिहासिक, पौराणिक घटनाक्रम के द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है वह प्रशंसनीय है।

एक कम, सत्य सप्रसंग व्याख्या

एक कम –

1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज
लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी
या गुस्से पर आश्रित
तुम्हारे सामने बिल्कुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंदी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम-से-कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो।

शब्दार्थ : आत्मनिर्भर = स्वयं पर निर्भर। मालामाल = धनी। कंगाल = गरीब। संकोच = झिझक। आभ्रित = निर्भर, किसी के सहारे। निर्ल्लज = बेशर्म। निराकांक्षी = इच्छा रहित। प्रतिद्वंद्वी = विपक्षी, विरोधी। निश्चिंत = बेफिक्र।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित विष्णु खरे की कविता ‘एक कम’ से अवतरित हैं। इस कविता के माध्यम से कवि ने स्वाधीनता के बाद भारतीय समाज में प्रचलित हो रही जीवन-शैली को रेखांकित किया है। इससे पूरे देश का या कहें कि आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का मोहभंग हुआ है। आपसी विश्वास, भाईचारे का स्थान धोखाधड़ी और आपसी खींचतान ने ले लिया है। ऐसे माहौल में कवि स्वयं को असमर्थ पाते हुए भी इमानदारों के प्रति अपनी सहानुभूति स्पष्ट रूप से रखता है । वह किसी के जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनना चाहता। इस प्रकार बह कम से कम एक व्यवधान तो कम कर सकता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि मैंने 1947 के बाद (स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद) बहुत से लोगों को अपने-अपने तरीकों से आत्मनिर्भर होते देखा है। वे लोग गलत हथकंडे अपनाकर मालामाल हो गए हैं। मैंने उन्हें उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते देखा है। लोगों ने आर्थिक संपन्नता के लिए झूठ, छल-कपट, बेईमानी, धोखाधड़ी आदि का रास्ता अपना लिया। चारों ओर स्वार्थपरता का वातावरण बनता चला गया।

इस माहौल में ईमानदार लोग दूसरों के आगे हाथ फैलाने को विवश हो गए हैं। जब कोई पच्चीस पैसे, एक चाय या दो रोटी के लिए हाथ फैलाता है; तब मैं जान लेता हूँ कि मेरे आगे हाथ फैलाने वाला व्यक्ति ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है। उसके हाथ फैलाने में यह स्वीकार करने का भाव है कि मैं विवश हूँ, एक कंगाल या कोढ़ी हूँ। अथवा यह भाव होता है कि मैं अच्छ भला स्वस्थ हूँ, कामचोर और एक साधारण धोखेबाज हूँ।

तात्पर्य यह है कि भीख माँगने वाला या तो वास्तव में अत्यंत लाचार होता है अथवा स्वस्थ होते हुए भी कामचोर या छोटा-मोटा धोखेबाज हो सकता है। पर वह अपना असली रूप बिना किसी धोखे के प्रकट कर देता है। कवि कहता है कि उस याचक के मन में यह स्वीकृति का भाव भी होता है कि मैं पूर्ण रूप से तुम्हारे संकोचपूर्वक या लज्जा के साथ अथवा परेशान होकर या क्रोधित होकर दिए गए दान के सहारे ही जीवित हूँ अथवा उसका जीवन दूसरों के दान पर ही निर्भर है, चाहे दान देते समय मनुष्य के मन में कैसी भी भावना रही हो।

इस तरह हाथ फैलाते हुए वह यह भाव प्रकट कर देता है कि मैंने तुम्हारे सामने, आत्मसम्मान को खो दिया है। मैने लज्जा का भी त्याग कर दिया है और मैने सारी आकांकाओं को भी छोड़ दिया है। इस प्रकार मैंने हर प्रतिस्पर्धा से स्वयं को हटा लिया है। मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्धंदी या हिस्सेदार नहीं हूँ अर्थात् धन कमाने की लालसा, उन्नति के रास्ते से स्वयं को हटा लिया है। मैं तुम्ठारी राह का बाधक नहीं हूँ। तुम चाहे कुछ दो या न दो परंतु कम से कम एक आदमी से तो चितामुक्त रह सकते हो अर्थात् तुम्हें मुझसे कोई खतरा नहीं है।

विशेष :

  • आजादी के बाद की स्थिति से मोहभंग हुआ है।
  • व्यंजना शक्ति का प्रयोग हुआ है।
  • पच्चीस पैसे, कंगाल या कोढ़ी, नंगा निर्लज्ज, हर होड़ में अनुप्रास अलंकार है।
  • शब्द-चयन अत्यंत सटीक है।
  • कविता मुक्त छंद में है।

सत्य –

1. जब हम सत्य को पुकारते हैं
तो वह छमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और घने जंगलों में
सत्य शायद जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं।

शब्दार्थ : गुहारते हुए = गुहार लगाते हुए।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित है। इस कविता में कवि ने सत्य की महत्ता, उसकी पहचान तथा उसकी पकड़ को स्पष्ट किया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि जब हम सत्य को पुकारते हैं तब वह हमसे और भी दूर चला जाता है। यह स्थिति कुछ इस प्रकार की होती है जैसे युधिष्ठिर के दीनतापूर्वक ऊँचे स्वर में पुकारने के बावजूद विदुर और भी दूर घने जंगलों की ओर भाग जाते हैं। वे युधिष्ठर के पुकारने पर भी नहीं रुकते। सत्य शायद यह जानना चाहता है कि हम उसके पीछे-पीछे कितनी दूर तक भटक सकते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार युधिष्ठिर के पुकारने पर भी सत्य का पालन करने वाले विदुर घने जंगलों में चले गए थे, उसी प्रकार जब हम सत्य को दीनतापूर्वक पुकारते हैं तब वह हमसें और अधिक दूरी बना लेता है। संभवतः सत्य हमारी निष्ठा की परीक्षा लेना चाहता है।

विशेष :

  • युधिष्ठिर और विदुर का प्रयोग प्रतीक रूप में किया गया है। विदुर ‘सत्य’ का तथा युधिष्ठिर ‘सत्य के अन्वेषक’ का प्रतीक है।
  • वृष्टांत अलंकार का प्रयोग है।
  • भाषा में सरलता एवं सजीवता है।
  • ‘सत्य’ का मानवीकरण किया गया है।

2. कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कढते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते।

शब्दार्थ : ओझल = गायब हो जाना।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। इसके रचयिता विष्णु खरे हैं। इस कविता में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों और पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट करना चाहा है। युधिष्ठिर, विद्धर और खांडवप्रस्थ- इंद्रप्थस्थ के द्वारा सत्य को, सत्य की महत्ता को ऐंतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करना ही यहाँ कवि का अभीष्ट है। जिस समय और समाज में कवि जी रहा है उसमें सत्य की पहचान और उसकी पकड़ कितनी मुश्शिल होती जा रही है, यह कविता उसका प्रमाण है।

व्याख्या : कवि कहता है कि सत्य का कोई स्थिर रूप नहीं है। वह कभी हमें दिखाई देता है और कभी आँखों के आगे से ओझल हो जाता है। हम उससे यह कहते ही रह जाते हैं कि रुको, यह हम हैं अर्थात् सत्य का कोई एक स्थिर रूप, आकार या पहचान नहीं है। जब तक हम उसे अनुभूत कर पाते हैं तब तक वह लुप्त हो चुका होता है और हम उसे रुकने के लिए पुकारते ही रह जाते हैं। कवि धर्भाज युधिष्ठिर और नीतिज्ञ विदुर के खांडवप्रस्थ के प्रसंग का उल्लेख करके बताता है कि धर्मराज युधिष्ठिर बार-बार दुहाई दे रहे थे कि स्वामी विदुर ठहर जाइए। मैं आपका सेवक कुतीपुत्र युधिष्ठिर हूँ परंतु वे उसकी पुकार को अनसुना कर देते हैं और वहाँ नहीं रुकते। इसी प्रकार हमारे रोकने पर भी सत्य रुकता नहीं। वह हमारी आँखों के सामने से ही ओझल हो जाता है। इस प्रकार सत्य हमारे हाथ से, हमारी पकड़ से बाहर हो जाता है।

विशेष :

  • पौराणिक प्रसंग को मिथकीय रूप में प्रकट किया गया है।
  • यह बताया गया है कि परिस्थितियों के अनुसार सत्य का स्वरूप बदलता रहता है।
  • ‘बार-बार’ में पुनुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • दृष्टांत अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है।
  • ‘सत्य’ का मानवीकरण किया गया है।
  • कविता मुक्त छंद में है।
  • भाषा सरल एवं सुवोध है।

3. यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिर्फ खड़ा ही रहता है वह दृक्निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हल्का सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। इस कविता में कवि बताता है कि दृढ़निश्चयी व्यक्ति का सत्य से साक्षात्कार हो पाता है।

व्याख्या : कवि बताता है कि सत्य की प्राप्ति दृढ़ संकल्प के बिना संभव नहीं है। जब हम युधिष्ठिर के समान दृढ़ संकल्प के साथ सत्य की खोज में उसके पीछे लग जाते हैं तब एक न एक दिन वह कुछ सोचकर रुक जाता है। अंततः लगता है कि सत्य हमें देख रहा है। हम भी उसे केवल देख पाते हैं, उससे कोई संवाद नहीं कर पाते। उस समय वह कहीं और देखती हुई नजर से हमारी आँखों में देखते हुए ऐसा लगता है कि जैसे अंतिम बार देख रहा हो। इस प्रकार सत्य से हमारा वह अंतिम साक्षात्कार होता है। उस समय उसमें से एक हल्का सा प्रकाश जैसा आकार निकलकर हममें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् हम सत्य को अंनुभूत कर लेते हैं, तब सत्य हमें अपने प्रकाश से भर देता है। फिर हमें उसको दूँढने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह हमारे अंदर समा जाता है।

विशेष :

  • सत्य की अनुभूति के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता बताई गई है।
  • सत्य की अनुभूति होने पर आत्मा प्रकाशित हो उठती है।
  • भाषा अत्यंत सरल एवं सहज है।
  • ‘यदि हम ….. पा जाते हैं’ में उपमा अलंकार है।

4. जैसी शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमेष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन ढुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया।

शब्दार्थ : निर्मिमेष = बिना पलक झपके, लगातार, आलोक = प्रकाश, प्रकाशपुंज = रोशनी का समूह। विलीन = मिलकर गायब हो जाना।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। कवि बताता है कि सत्य हमारे अंदर अपना प्रकाश तो भर देता है, पर उससे हमारा कोई संवाद नहीं होता। तब हमें उसकी उपस्थिति के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि सत्य का प्रकाश हमारे अंदर वैसे ही समा जाता है जैसे विदुर ने शमी वृक्ष के तने के सहारे खड़े होकर धर्मराज युधिष्ठिर को अनजान जैसे देखते हुए भी पहचानकर अंतिम बार बिना पलक झपकाए देखा था। तब उनका प्रकाश उनमें से निकलकर धीरे-धीरे आगे बढ़कर युधिष्ठिर में मिल गया था। दृढ़ संकल्प से तलाशने पर सत्य हमारे अंदर अपना प्रकाश भर देता है।

कवि कहता है कि सत्य का साक्षात्कार होने के बाद भी हम सिर झुकाकर निराश अवस्था में लौटते हैं। हम यह सोचते हैं कि सत्य हमसे बोला नहीं। हमने उसे अपने आकार से निकलते और हममें विलीन होते देखा अवश्य था फिर वह आगे बढ़ गया। इस प्रकार सत्य की उपस्थिति के बारे में हमारे मन में संशय बना रहता है।

कवि के कहने का भाव यह है कि दृढ़ संकल्प से हमें सत्य से साक्षात्कार तो होता है, पर यह सुनिश्चित नहीं होता कि हमने सत्य को धारण भी कर लिया है या नहीं। इस प्रकार हमारे मन में संशय बना रहता है कि सत्य हमारे भीतर मौजूद है भी या नहीं।

विशेष :

  • सत्य के प्रति संशय को युधिष्ठिर-विदुर के दृष्टांत के माध्यम से व्यक्त किया गया है।
  • ‘धीरे-धीरे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • काव्यांश में दृष्टांत अलंकार है।
  • अंतिम पंक्तियों में विरोधाभास अलंकार है।
  • ‘सत्य’ का मानवीकरण किया गया है।

5. हम कह नहीं सकते
न तो हममें कोई स्कुरण हुआ और न ही कोई ज्वर
किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं
कैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं
हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।

शब्दार्थ : ज्वर = बुखार। प्रतिबिंब = परछाई। स्फुरण = कँपकँपी।

प्रसंग : उस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। कवि का कहना है कि सत्य के आकार से प्रकाशपुंज हमारे पास आता तो है पर मन के अंदर संदेह बना रहता है कि वह हमारे अंदर विलीन हुआ या बाहर चला गया।

व्याख्या : कवि कहता है कि सत्य का प्रकाश हमारे पास आया तो हमारे अंदर कोई कपकँपीं नहीं हुई, न कोई ज्वर हुआ, न कोई कंपन हुआ, न किसी विशेष उष्मा की अनुभूति हुई। अर्थात् हमने अपने अंदर किसी परिवर्तन का अनुभव नहीं किया। अत: हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि सत्य हमारे अंदर समाया अथवा नहीं।

हमारी आत्मा में कभी-कभी जो विशेष दीप्ति आ जाती है क्या वह आत्मा की आंतरिक शक्ति सत्य से प्रकाशित हो जाने के कारण है। जैसे खांडवप्रस्थ से इंद्रस्थ लौटते हुए युधिष्ठिर ने मुकुट पहने सिर को नीचा किए हुए सोचा होगा कि यदि विदुर कहना चाहते तो वहीं बता देते। कवि का भाव यह है कि युधिष्ठिर ने अपने अहं का त्याग करते हुए यह सोचा होगा कि उनकी अंतर आत्मा में जो सत्य और न्याय का प्रकाश है, वही उस अनकहे सत्य के प्रकाश का प्रतिबिंब है। सत्य के प्रकाश ने ही उसकी आत्मा को कांतिमान बना दिया है।

विशेष :

  • सत्य की उपस्थिति चाहे कितनी भी संशयग्रस्त रहे, पर सत्य का प्रकाश हमारी अंतरात्मा को प्रतिभासित अवश्य करता है।
  • काव्यांश में दृष्टांत अलंकार है।
  • ‘कभी-कभी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
  • भाषा में गंभीरता एवं सजीवता है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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