Class 12 Hindi Antra Chapter 3 Summary – Yah Deep Akela, Maine Dekha, Ek Boond Summary Vyakhya

यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 3 Summary

यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यान ‘अज्ञेय’ – कवि परिचय

प्रश्न :
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानव नियति और प्राकृतिक सौंदर्य के घिसे-पिटे वक्तव्यों और गढ़ी-गढ़ाई शैली से हटकर अपने अंतर्मन की वाणी देने वाले सफल साहित्यकार के अज्ञेय में दर्शन होते हैं।

जीवन-परिचय : अज्ञेय जी का जन्म मार्च 1911 में कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनका बचपन अपने विद्वान पिता के साथ लखनऊ, कश्मीर, बिहार में बीता। इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अंग्रेजी और संस्कृत में प्राप्त की। उन्होंने बी. एस. सी. पास करने के बाद एम. ए. (अंग्रेजी) की पढ़ाई आरंभ की। उन्हीं दिनों देशक्यापी स्वतंत्रता संग्राम अपना व्यापक रूप धारण कर रहा था। ये भी क्रांतिकारियों से जा मिले। सन् 1930 में ये गिरफ्तार कर लिए गए। उनको चार वर्ष जेल में काटने पड़े और दो वर्ष नजरबंदी में। इन्होंने किसान आंदोलन में भी सक्रिय भाग लिया, साथ ही सन् 1943 से 1946 तक कुछ वर्ष सेना में रहे। संसार के अनेक देशों की यात्राएँ की और वहाँ की प्रकृति, भावनाओं तथा विचारों का अध्ययन किया। 4 अप्रैल, 1987 को नई दिल्ली में इनका निधन हो गया।

साहित्यिक परिचय : उन्होंने कई नौकरियाँ की और छोड़ीं। कुछ समय तक वे जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे। वे हिंदी के प्रसिद्ध समाचार साप्ताहिक दिनमान के संस्थापक संपादक थे। कुछ दिनों तक उन्होंने नवभारत टाइम्स का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होंने सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, नया प्रतीक आदि अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। आजादी के बाद की हिंदी कविता पर उनका व्यापक प्रभाव है। उन्होंने सप्तक परंपरा का सूत्रपात करते हुए तार सप्तक, दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक तथा चौथा सप्तक का संपादन किया। प्रत्येक सप्तक में सात कवियों की कविताएँ संगृहीत हैं, जो शताब्दी के कई शब्दों की काव्य-चेतना को प्रकट करती हैं।

अज्ञेय ने कविता के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, आलोचना आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया है। वे हिंदी में प्रयोगवाद और नई कविता के प्रवर्तक माने जाते हैं। ‘कितनी नावों में कितनी बार’ काव्य-संग्रह पर इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। अजेय प्रकृति-प्रेम और मानव मन के अंतर्द्वश्शें के कवि हैं। उन पर फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव है।

रचनाएँ : अजेय जी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं : भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए थे, अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, सागर मुद्रा, नदी के बाँक पर, छाया, कितनी नावों में कितनी बार, सन्नाटा, बुनता हूँ आदि।

अज्ञेय ने तार सप्तक (1943 ई.), दूसरा सप्तक (1952), तीसरा सप्तक (1959) और चौथा सप्तक (1979) का भी संपादन किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने कई कहानी संग्रह, यात्रा-साहित्य, ललित निबंध, उपन्यास और आलोचनाएँ भी लिखी हैं।

काव्यगत विशेषताएँ –

भावपक्ष : ‘अज्ञेय’ जी ने काव्य जगत में उस समय प्रवेश किया जब प्रगतिवादी आंदोलन जोरों पर था। कविता छायावादी प्रभाव से मुक्त होकर अंतर्मुखी प्रवृत्ति छोड़कर बाहरी जगत की ओर ध्यान देने लगी थी। काव्य क्षेत्र में आंदोलन की लहर दौड़ रही थी। उसका प्रवर्तन अज्ञेय जी ने ‘ तार सप्तक’ के संकलन द्वारा किया। इस संकलन में संकलित रचनाएँ विभिन्न कवियों की हैं जो कलाकारों को प्रेरित करती हैं कि युगों से चली आ रही घिसी-पिटी परंपराओं को छोड़कर नवीन परंपराओं को अपनाएँ।

इनके प्रयोगवाद में एक ओर रहस्यवाद का खंडन दृष्टिगोचर होता है तो दूसरी ओर उसका समर्थन भी। प्रगतिवादी कवि असीम सत्ता में विलीन होने का विरोधी है। उसके लिए व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है। असीम सत्ता को वह परवशता का रूप देता है। यथा-

“वह हमें शतरंज के प्यादों सरीखा है हटाता।
काश हम में शक्ति होती, भाग्य को हम झेल सकते।”

रहस्यवाद का समर्थन करता हुआ वह कहता है-

“दीप थे अगणित, जीवन
शून्य की आरती।
बहा दूँ सब दीप! बुझने दो,
अगर है स्नेह कम! सारी शिखाएँ।”

अक्षेय जी ने अपने सूक्ष्म कलात्मक बोध, व्यापक जीवन अनुभूति और समृद्ध कल्पना तथा किंतु संकेतमयी अभिव्यंजना के द्वारा परिचित भावनाओं को नूतन तथा अनछुए रूपों में व्यक्त किया है। “मेंने आहुति बनकर देखा”-कविता में वे कितने प्रभावोत्पादक ढंग से भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। देखिए –

“मैं कब कहता हूँ जब मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने”
+ + +
काँटा कठोर है, तीखा, उसमें मर्यादा है
मैं कब कहता हूँ यह घटकर प्राँतर की ओछा फूल बने ?”
+ + +
“मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपव की धूल ब्ने-
+ + +
मैं विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्चाला है।”

कलापक्ष : अज्ञेय जी ने परंपरागत काव्य के शिल्प विधान तथा शैली में परिवर्तन एवं संशोधन करके उसे अपनी भावों की अभिव्यक्ति के अनुकूल बनाया है।

भाषा : इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, स्वच्छ तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। उनका शब्द प्रयोग सजग और सुंदर है। भाषा भाव और विचारों के अनुरूप है। प्रत्येक शब्द का उसकी शक्ति के अनुरूप प्रयोग हुआ है। उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों का आधिक्य अखरने लगता है। भाषा पर इनके व्यक्तित्व की छाप है।

छंद : वे अपनी रचनाओं में छंदों की मान्यता तोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। इन्होंने छंद विधान के स्थान पर स्वर तथा गद्यमयता को महत्त्व दिया है। अतुकांत छंद इनको प्रिय थे।

अलंकार : अज्ञेय जी अलंकार प्रयोग के पक्ष में नहीं थे। इन्होंने बिंब विधान प्रतीक योजना और जीवन की समानांतर समीपस्थ अभिव्यक्ति को अपनाया है। ये कविता के भाव अर्थ को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे।

Yah Deep Akela, Maine Dekha, Ek Boond Class 12 Hindi Summary

1. यह दीप अकेला कविता में अकेय ऐसे दीप की बात करते हैं जो स्नेह भरा है, गर्व भरा है, मदमाता भी है कितु अकेला है। अहंकार का मद हमें अपनों से अलग कर देता है। कवि कहता है कि इस अकेले दीप को भी पंक्ति में शामिल कर लो। पंक्ति में शामिल करने से उस दीप की महत्ता एवं सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप सब कुछ है, सारे गुण एवं शक्तियाँ उसमें हैं, उसकी व्यक्तिगत सत्ता भी कम नहीं है फिर भी पंक्ति की तुलना में वह एक है, एकाकी है।

दीप का पंक्ति या समूह में विलय ही उसकी ताकत का, उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है, उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य का सर्वव्यापीकरण है। ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है। व्यक्ति सब कुछ है, सर्वशक्तिमान है, सर्वगुणसंपन्न है फिर भी समाज में उसका विलय, समाज के साथ उसकी अंतरंगता से समाज मजबूत होगा, राष्ट्र मजबूत होगा। इस कविता के माध्यम से अक्षेय ने व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ने पर बल दिया है। दीप का पंक्ति में विलय व्यष्टि का समष्टि में विलय है और आत्मबोध का विश्वबोध में रूपांतरण।

2. मैंने देखा एक बूँद कविता में अज्ञेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती बूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है समुद्र की नहीं। बूँद क्षणभर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती है। क्षणभर का यह दृश्य देखकर कवि को एक दार्शनिक तत्त्व भी दीखने लग जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्टीकरण के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।

यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद सप्रसंग व्याख्या

यह दीप अकेला –

1. यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है – गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा ?
पनडुब्बा – ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा ?
यह समिधा – ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय – यह मेरा – यह मैं स्वयं विसर्जित –
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

शब्दार्थ : स्नेह = तेल, प्रेम। मदमाता = मस्ती में भरा। पनडुब्बा = गोताखोर, एक जलपक्षी जो पानी में ड्बब-डूब कर मछलियाँ पकड़ता है। कृती = भाग्यवान। समिधा = यज्ञ की लकड़ी। बिरला $=$ बहुतों में एक। अद्वितीय – अनोखा। विसर्जित = त्यागा हुआ।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रयोगवादी कवि अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं। यह कविता अज्ञेय की रचना ‘बावरा अहेरी’ से संकलित है। इस कविता में अजेय एक ऐसे दीप की बात करता है जो स्नेह (तेल) से भरा है, गर्व से भरा है, मदमाता भी है कितु अकेला है। कवि चाहता है कि इस अकेले दीप को भी पंक्ति में शामिल कर लिया जाए। इससे इसकी महत्ता और सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप का पंक्ति में विलय ही उसकी ताकत है। उसकी सत्ता का सार्वभौमिकरण है। ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है।

व्याख्या : कवि कहता है कि यह दीप अकेला है। यह स्नेह और गर्व से भरा हुआ है और यह मदमाता भी है, अर्थात् यह अहंकार की मस्ती में चूर है। फिर भी यह अकेला है। अतः इस दीप को पंक्ति में शामिल करने की आवश्यकता है, अर्थात् मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ दो।

यह गीत गाता हुआ मनुष्य है। इसे भी समूह में शामिल कर लो नहीं तो इन गीतों को और कौन गाएगा ? यह जल में डुबकी लगाने वाला ऐसा गोताखोर है जो सागर की अतल गहराई में जाकर सच्चे मोती निकालकर लाता है। इसी भी साथ ले लो, नहीं तो कौन कुशल व्यक्ति सच्चे मोतियों को ढूँढकर लाएगा ? अर्थात् इसे भी समाज में सम्मिलित कर लो। इससे इसका और समाज का दोनों का लाभ होगा।

यह वह जलती हुई हवन की समिधा (लकड़ी) है जो अन्य सभी समिधाओं में अद्वितीय स्थान की अधिकारिणी है। इसके जैसा काम कोई दूसरा नहीं कर पाएगा। यह मेरा ‘स्व’ का भाव है। इसे अपनी व्यक्तिगत सत्ता को कायम रखते हुए भी सामाजिक सत्ता में विलय होना है। यह दीप अकेला है। स्नेह से भरा हुआ है, गर्व से भरा हुआ है, अहंकार के नशे में चूर है। इसके बावजूद उसे पंक्ति में जगह दे दो अर्थात् व्यष्टि का समष्टि में विलय कर लो।

विशेष :

  • कवि ने व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ने का संदेश दिया है। यह विलय ही उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है।
  • ‘गाता गीत’, ‘कौन कृति’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है – ‘दीप’ व्यक्ति का तथा ‘पंक्ति’ समाज का प्रतीक है।
  • रूपक अलंकार का भी प्रयोग है।
  • भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।

2. यह मधु है – स्वयं काल की मौना का युग-संचय
यह गोरस – जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर – फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुतः इस को भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।

शब्दार्थ : मधु = शहद। गोरस = दूध-दही। कामघेनु = एक गाय जिसके दूध को पीने से कामनाएँ पूरी होती हैं। मौना = टोकरा, पिटारा। पय = दूध। निर्भय – निडर। प्रकृत = स्वाभाविक, प्रकृति के अनुरूप। स्वयंभू = स्वयं पैदा हुआ, ब्रह्या। अमृत-पूत पय देवपुत्र पय अर्थात् अमृत। अयुतः = पृथक्, असंबद्ध।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग- 2’ में संकलित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित है। इसमें कवि ने यह बताया है कि व्यक्ति का समाज में विलय ही उसकी सार्थकता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि यह मधु है। इसे काल के टोकरे में युग-युग तक स्वयं संचित किया गया है। यह एक ऐसा दूध है जो जीवन रूपी कामधेनु का अमृत पय है। यह वह अंकुर है जो धरती को फोड़कर निर्भयतापूर्वक सूर्य की ओर देखता है। यह प्रकृति के अनुरूप स्वयं पैदा हुआ, ब्रह्म और सर्वथा पृथक है। इसको भी शक्ति दे दो। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में सारे गुण व शक्तियाँ विद्यमान हैं। वह स्वयं में पूर्ण है। फिर भी समाज के साथ उसकी अंतरंगता से समाज मजबूत होगा।

कवि कहता है कि यह दीपक अकेला है, स्नेह से परिपूर्ण है, गर्व से भरा हुआ है। इसमें अहं भाव भी है। पर इसको पंक्ति में जगह दे दो अर्थात् अकेले व्यक्ति को समाज में सम्मिलित कर लो। समाज में इसके विलय से समाज और राष्ट्र मजबूत होगा।

विशेष :

  • इस काव्यांश में ‘दीप’ की उपमा अनेक वस्तुओं से दी गई है।
  • ‘जीवन-कामधेनु’ में रूपक अलंकार है।
  • संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है।
  • लाक्ष्षणिक प्रयोग द्रष्टव्य है।

3. यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो-
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।

शब्दार्थ : लघुता = छोटापन। पीड़ा = दुःख। कुत्सा = निंदा, घुणा। अपमान = बेइज्जती। तम = अंधकार। द्रवित = पिघला हुआ। उल्लंब बाहु = उठी हुई बाँह वाला।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ अजेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं। यहाँ कवि दीपक के प्रतीक के माध्यम से मनुष्य को विश्वास से परिपूर्ण, दुखों में सहनशील, जागरूक और प्रयुद्ध बताते हुए सर्वगुण संपन्न दर्शाता है। इसके बावजूद उसे पंक्ति में जगह देने की बात कहकर कवि व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता से जोड़ने का संदेश देता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि यह दीपक उस विश्वास का ही एक रूप है जो अपने छोटे होने के बावजूद काँपता नहीं। यह वह पीड़ा है, जिसकी गहराई को उसने स्वयं नाप लिया है अर्थात् दीपक रूपी व्यक्ति में आत्मविश्वास भरा हुआ है और इसमें गहरे दुख को भी सहन करने की क्षमता है।

निंदा. अपमान, अनादर के धुंधलाते कठोर अंधकार में यह हमेशा द्रवित अर्थात् करुणा से भरा हुआ, दीर्घकाल से जागरूक, अनुराग युक्त नेत्रों वाला, गले लगाने को उठी हुई बाँहों वाला और दीघ समय से सम्पूर्ण आत्मीयता से भरा हुआ है। यह ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्सुक, जागृत, भ्रद्धा से युक्त है। इसको भक्ति दे दो।

यह दीप अकेला है, स्नेह से भरा हुआ है, गर्व से भी भरा है और यह अहं भाव से परिपूर्ण है। फिर भी इसे पंक्ति में जगह दे दो। तात्पर्य यह है कि दीपक रूपी व्यक्ति में सभी अच्छे गुणों का समावेश है फिर भी इसे समाज में शामिल करने की आवश्यकता है। समाज के साथ इसकी अंतरंगता से समाज को मजबूती मिलेगी।

विशेष :

  • इस काव्यांश में व्यक्ति और समाज के संबंधों की क्याख्या की गई है।
  • ‘दीप’ का प्रतीकात्मक प्रयोग दर्शनीय है।
  • लाक्षणिकता का समावेश है।
  • तत्सम शब्द बहुला भाषा का प्रयोग किया गया है।
  • श शब्द-चयन अत्यंत सटीक है।

मैंने देखा, एक बूँद –

मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से :
रंग गई क्षण-भर
ढलते सूरज की आग से
मुझ को दीख गया :
सूने विराद् के सम्मुख
हर आलोक-छुपा अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!

शब्दार्थ : सहसा = अचानक। सागर – समुद्र। विराट = बहुत बड़ा, ब्रहम, परम सत्ता। सम्मुख = सामने। आलोक = प्रकाश। उन्मोचन = मुक्ति, ढीला करना। नश्वरता = नाशबान, नष्ट होने वाला।

प्रसंग : प्रस्तुत लघु कविता प्रयोगवाद के जनक कवि अक्षेय द्वारा रचित है। उनकी यह कविता ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में संकलित हैं। इस कविता में अजेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती बूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है, समुद्र की नहीं। बूँद क्षण भर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती है। क्षण भर का यह दृश्य कवि को दार्शनिक तत्व का रहस्य समझा जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से नष्ट होने के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षण-भंगुरता को प्रतिपादित किया है।

व्याख्या : एक दिन कवि ने संध्या की अरुणिमा बेला में देखा कि अचानक समुद्र के झाग के मध्य से एक छोटी-सी बूँद उछली और पुनः उसी में समा गई। यद्यपि उस बूँद का अस्तित्व क्षणिक था। तथापि निरर्थक कतई नहीं था। इसका कारण यह था कि वह बूँद एक क्षण में ही अस्त होते सूर्य की स्वर्णिम रश्मियों के द्वारा रंग गई थी और स्वर्ण की भाँति चमक उठी थी। कवि इस दृश्य को देखकर एक दार्शनिक तत्व की खोज में लीन हो जाता है। व्यक्ति की स्थिति भी समष्टि में ऐसी ही है जैसे सागर में बूँद की, लेकिन जैसे बूँद-बूँद से समुद्र बनता है वैसे ही व्यक्ति-व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं। अतः व्यक्ति को नकारा नहीं जा सकता।

बूँद का इस प्रकार ‘चमककर समुद्र में विलीन हो जाना कवि को आत्मबोध कराता है कि यद्यपि विराट सत्ता शून्य या निराकार है तथापि मानव जीवन में आने वाले मधुर मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी सत्य का दर्शन हो जाता है। वह आश्वस्त हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है। उसकी स्थिति वैसी ही सात्विक है, जैसी उस साधक की जो पाप से मुक्त हो गया है।

विशेष :

  • इस कविता में कवि ने क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठित किया है।
  • यह कविता प्रयोगवादी शैली के अनुरूप है।
  • यह कविता प्रतीकात्मकता को लिए हुए है। इसमें ‘बूँद’ व्यक्ति का और ‘सागर’ समाज का प्रतीक है।
  • कवि ने व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा की है।
  • कवि पश्चिम के अस्तित्ववाद से भी प्रभावित है।
  • ‘ढलते सूरज की आग’ में ‘आग’ का प्रयोग आलोक के अर्थ में साभिप्राय है।

Hindi Antra Class 12 Summary

source

  • Balkishan Agrawal

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