Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Summary – Samvadiya Summary Vyakhya

संवदिया Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Summary

संवदिया – फणीश्वरनाथ रेणु – कवि परिचय

प्रश्न :
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए तथा उनकी रचनाओं का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 1921 में बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने 1942 ई. के “भारत छोड़ो” स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। नेपाल के रणाशाही विरोधी आंदेलन में भी. उनकी सक्रिय भूमिका रही। वे राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। 1953 ई. में वे साहित्य-सृजन के क्षेत्र में आए और उन्होंने कहानी, उपन्यास तथा निबंध आदि विविध साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया। उनकी मृत्यु 1977 ई. में हुई।

साहित्यिक विशेषताएँ : ‘रेणु’ हिंदी के आंचलिक कथाकार हैं। उन्होंने अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं का आधार बनाकर, आंचलिक शब्दावली और मुहावरों का सहारा लेते हुए, वहाँ के जीवन और वातावरण का चित्रण किया है। अपनी गहरी मानवीय संवेदना के कारण वे अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा स्वयं भोगते-से लगते हैं। इस संवेदनशीलता के साथ उनका यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य के भीतर अपनी जीवन-दशा को बदल देने की अकूत ताकत छिपी हुई है।

फणीश्वरंनाथ ‘रेणु’ स्वतंत्र भारत के प्रख्यात कथाकार हैं। रेणु ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को नई पहचान और भंगिमा प्रदान की। इनकी कला-सजग आँखें, गहरी मानवीय संवेदना और बदलते सामाजिक यथार्थ की पकड़ अपनी अलग पहचान रखते हैं। रेणु ने ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’ जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण उपन्यासों के साथ अपने शिल्प और आस्वाद में भिन्न हिंदी कहानी-परपरा को जन्म दिया। आधुनिकतावादी फैशन से दूर ग्रामीण समाज रेणु की कलम से इतना रससिक्त, प्राणवान और नया आयाम ग्रहण कर सका है कि नगर एवं ग्राम के विवादों से अलग उसे नई सांस्कृतिक गरिमा प्राप्त हुई। रेणु की कहानियों में आंचलिक शब्दों के प्रयोग से लोकजीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हुई है। उनकी भाषा संवेदनशील, संप्रेषणीय एवं भाव प्रधान है। मरातक पीड़ा और भावनाओं के द्वंद्व को उभारने में लेखक की भाषा अंतर्मन को छू लेती है।

रचनाएँ : उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं : ‘ठुमरी’, ‘अग्निखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘तीसरी कसम।’ ‘तीसरी कसम’ उर्फ मारे गए गुलफाम कहानी पर फिल्म भी बन चुकी है। ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ उनके उल्लेखनीय उपन्याय हैं।

एज: पाठ का संक्षिप्त परिचय – 

‘संवदिया’ कहानी में मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत हुई है। असहाय और सहनशील नारी मन के कोमल तंतु की. उसके दु:ख और करुणा की, पीड़ा तथा यातना की ऐसी सूक्ष्म पकड़ रेणु जैसे ‘आत्मा के शिल्पी’ द्वारा ही संभव है। हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दु:खी, विपन्न बेसहारा बड़ी बहुरिया जैसे पात्रों का संवाद लेकर रेणु पाठकों के सम्मुख उपस्थिति होते हैं। रेणु ने बड़ी बहुरिया की पीड़ा को उसके भीतर के हा-हाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है। लोक भाषा की नींव पर खड़ी ‘संवदिया’ कहानी पहाड़ी झरने की तरह गतिमान है। उसकी गति, लय, प्रवाह, संवाद और संगीत पढ़ने वाले के रोम-रोम में झंकृत होने लगता है।

Samvadiya Class 12 Hindi Summary

‘संवदिया’ कहानी एक अत्यंत मार्मिक कहानी है। संवाद या समाचार ले जाने वाले व्यक्ति को संवदिया कहा जाता है। हरगोबिन एक संवदिया है। यद्यपि आज गाँव-गाँव में डाक़घर खुल गए हैं पर किसी गुप्त समाचार को ले जाने की आवश्यकता संवदिया को बुला ही लेती है। गाँव की बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया (पुत्रवधू) ने अपने मायके समाचार भेजने के लिए हरगोबिन को बुलाया। यह बड़ी हवेली कभी रौनक वाली होती थी, पर अब सब कुछ बिखर गया।

बड़े भैया के मरते ही तीन भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा करके सब कुछ आपस में बाँट लिया और वे गाँव छोड़कर शहर जा बसे। गाँव में बस रह गई बड़ी बहुरिया। उसे भूखा मरने तक की नौबत आ गई। अब उसे बथुआ-साग खाकर पेट भरना पूड़ रहा था। गाँव की मोदिआइन बूढ़ी अपना उधार वसूलने के लिए बड़ी बहुरिया को खरी-खोटी सुनाती है। उसके चली जाने के बाद ही बड़ी बहुरिया हरगोबिन को अपनी पीड़ा सुनाती है। वह उससे अपने पीहर संदेश ले जाने को कहती है- “माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी।

बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं’ ‘अब नहीं रह सकूँगी। कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी।’ बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ। किसलिए’ किसके लिए ?” उसके इन आँसू भरे शब्दों ने हरगोबिन को भीतर तक झकझोर दिया। वह देवर-देवरानियों की बेदर्दी पर भी विचार करने लगा।

हरगोबिन राह-खर्च लिए बिना ही थाना बिंहपुर जाने वाली डाकगाड़ी में जा बैठा। वह बड़ी बहुरिया के शब्दों को याद करने और उन्हें उसी लहजे में कहने की हिम्मत जुटा रहा था। कटिहार जंक्शन पर पहुँचकर बिंहपुर स्टेशन की गाड़ी बदली। जब गाड़ी उस स्टेशन पर पहुँची तब उसका जी भारी हो गया। वह किस मुँह से बड़ी बहुरिया का संवाद सुना पाएगा। हरगोबिन को गाँव में प्रवेश करते ही गाँव वालों ने पहचान लिया कि जलालगढ़ गाँव का सँवदिया आया है।

बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने अपनी दीदी का हाल-चाल पूछा। घर पहुँचकर हरगोबिन ने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता की पाँवलागी की। बूढ़ी माता ने समाचार पूछे। हरगोबिन सब ठीक बताया। उसने अपने आने का यह कारण बताया कि वह तो कल सिरसिया गाँव आया था अतः आज उन लोगों के दर्शन करने चला आया। जब बूढ़ी माता ने संवाद पूछा तो हरगोबिन टाल गया और कहा बड़ी बहुरिया ने कहा है कि छुट्टी होने पर वह दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर माँ से भेंट-मुलाकात कर जाएगी। बूढ़ी माता ने अपना दुझख प्रकट करते हुए कहा भी कि वह तो बबुआ से अपनी दीदी को लिवा लाने के लिए कह रही थी।

अब उसका वहाँ रह ही क्या गया है। उसकी कोई खोज-खषर भी नहीं लेता। मेरी बेटी वहाँ अकेली है।। यह सुनकर हरगोबिन उन्हें दिलासा देता है कि जमीन-जयदाद अभी भी कुछ कम नहीं है। बड़ी बहुरिया तो गाँव की लक्ष्मी है। वह गाँव को छोड़कर शहर नहीं जा सकती। हरगोबिन बड़ी बहुरिया की दशा को लेकर इतना भाषुक हो उठा था कि उससे रात को ठीक से खाना भी नहीं खाया गया। उसे रात को नींद भी नहीं आई। वह निश्चय कर रहा था कि वह सुबह उठते ही बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा। उसका काम तो सही-सही संवाद पहुँचाना है। वह बूढ़ी माता के पास जा बैठा, पर सही संवाद सुनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने लौटने का निश्चय प्रकट किया तो बूढ़ी माता बोली- “ऐसी जल्दी थी तो आए ही क्यों ? सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूँगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूढ़ा है बासमती धान का, लेते जाओ।”

हरगोबिन उसे लेकर स्टेशन पर पहुँच गया। उसके पास केवल इतने पैसे थे कि वह कटिहार तक जा सकता था। वहाँ से गाँव 20 कोस दूर था। उसने पैदल चलने का निश्चय किया। वह दस कोस तो चल गया, फिर कस्बा शहर पहुँचकर पेट भर पानी पी लिया। उसे बड़ी बहुरिया की डबड़बाई.आँखें याद आ रही थीं। वह भूखी-प्यासी राह देख रही होगी। वह चलता चला गया। वह गिरता-पड़ता घर जा पहुँचा। बड़ी बहुरिया ने कहा- “हरगोबिन भाई आ गए।” क्या हुआ तुमको “।”

हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा। वह बिछ्हावन पर लेटा हुआ था। सामने बैठी छाया को छूकर बोला- “बड़ी बहुरिया।” थोड़ा दूध पीकर उसे होश आया। उसने बड़ी बहुरिया के पैर पकड़ लिए और माफी माँगी क्योंकि वह उसका संवाद उसके मायके में कह नहीं पाया। उसने बहुरिया से यह प्रार्थना की कि वह गाँव छोड़कर न जाए। वह उसे कोई कष्ट नहीं होने देगा। वह उसकी माँ है, सारे गाँव की माँ है। वह अब निठल्ला नहीं बैठेगा तथा उसका सब काम करेगा।
बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुट्डी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी। वह स्वयं संवाद भेजने के बाद अपनी गलती पर पछ्छता रही थी।

जड़ शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

संवदिया = संदेशवाहक, संदेश पहुँचाने वाला (Messenger), मार्फत = माध्यम, जरिया (Medium), परेवा = कबूतर, कोई तेज उड़ने वाला पक्षी (A bird), सूपा = छाज, सूप (Broth), रैयत = प्रजा (Subject), हिकर = बेचैन होकर पुकारना (Restless cry), अफरना = जी भरकर खाना (Full eating), चूड़ा = चिड़वा (Product of rice), बहुरिया = पुत्रवधू (Daughter-in-law), दखल = हस्तक्षेप, अधिकार माँगना (Interference), आगे नाथ न यीछे पगहा = कोई जिम्मेदारी न होना (No responsibility), कलेजा धड़कना = घबरा जाना (Restlessness), खोज खबर न लेना = जानकारी प्राप्त न करना, पूछताछ न करना (Noenquiry), खून सूख जाना = बहुत अधिक डर जाना (Too much terrorised), गुप्त = रहस्यपूर्ण (Secret), इंतजाम = प्रबंध (Arrangement), अनिच्छापूर्वक = बेमन से (Unwillingness)।

संवदिया सप्रसंग व्याख्या

1. बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरु किया। रैयतों ने जमीन पर दावे करके दखल किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे, रह गई बड़ी बहुरिया-कहाँ जाती बेचारी! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते ? ‘बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-छीनकर बँटवारे की लीला हुई थी। हरगोबिन ने देखी है अपनी आँखों से द्रैपदी चीर-हरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित मार्मिक कहानी ‘संवदिया’ से अवतरित है। इस कहानी में लेखक ने मानवीय संवेदना को गहराई के साथ व्यक्त किया है। बड़ी बहुरिया के माध्यम से एकाकी जीवन जीती और संघर्ष करती नारी की व्यथा व्यंजित हुई है।

व्याख्या : बड़ी हवेली में जब तक बड़े भैया जीवित रहे तब तक यह हवेली बड़ी बनी रही। यहाँ बड़ी बहुरिया और अन्य सदस्य अत्यंत सम्मानपूर्वक रहते थे, पर उनकी असमय मौत ने सारे खेल को ही खत्म कर दिया। उनके साथ परिवार की सुख-शांति भी चली गई। शेष बचे तीनों भाइयों में संपत्ति को लेकर लड़ाई-झगड़े होने लगे। जिनके पास उनकी जमीनें थीं उन्होंने दावे करके दखल कर लिया। तीनों भाइयों ने गाँव छोड़कर शहर की ओर रुख कर लिया।

अब बड़ी हवेली में केवल बड़ी बहुरिया ही रह गई। सब उसे छोड़कर चले गए। बड़ा भाई भला आदमी था और भगवान ने उसे एक घंटे की बीमारी देकर अपने पास बुला लिया। उनके मरने के बाद घर के जेवर-कपड़े का शर्मनाक बँटवारा हुआ। बड़ी बहुरिया के शरीर के जेवर खींचकर उतार लिए गए और उनको आपस में बाँट लिया गया। हरगोबिन ने बँटवारे का वह दुःखदायी दृश्य अपनी आँखों से देखा था। बड़ी बहुरिया का एक प्रकार से चीरहरण हुआ था। उसके शरीर की बनारसी साड़ी उतरवाकर उसके भी तीन टुकड़े किए गए और उन्हें आपस में बाँट लिया गया। यह भाइयों की निर्दयता की चरम सीमा थी। बड़ी बहुरिया बेचारी बनकर इस सारी पीड़ा को झेलती रही।

विशेष :

  1. स्मृति बिंब के सहारे पुरानी दुःखद स्मृतियों को साकार किया गया है।
  2. भावुकता, मार्मिकता एवं नग्न यथार्थ का समावेश हुआ है।
  3. भाषा सहज एवं सुबोध है।

2. संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकने लगी। हरगोबिन की आँखें भी भर आई़। बड़ी हवेली की लक्ष्मी को पहली बार इस तरह सिसकते वेखा है हरगोबिन ने। वह बोला, “बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।” “और कितना कड़ा करूँ दिल ?” माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं “अब नहीं रह सकूँगी। “कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मसूँगी। ‘बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ ? किसलिए ‘किसके लिए ?”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की मार्मिक कहानी ‘संबदिया’ से अवतरित है। घर की बड़ी बहुरिया अत्यंत कष्टमय जीवन बिताने को विवश थी। वह अपनी माँ के पास जाने के लिए हरगोबिन के माध्यम से संवाद भिजवाना चाह रही है। संवाद कहते समय उसकी मन:स्थिति का चित्रण इन पंक्तियों में हुआ है।

व्याख्या : जब बड़ी बहुरिया संवाद सुना रही थी तब उसकी सिसकी बँधने लगी। उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह बहुत व्यथित थी। हरगोबिन ने बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया को पहली बार इस प्रकार रोते देखा था। उसे तो हवेली की लक्ष्मी कहा जाता था। हरगोबिन ने उसे दिलासा देते हुए जी कड़ा करने को कहा।

इस पर बड़ी बहुरिया फूट पड़ी। वह और कितना दिल कड़ा करे। वह बुरी तरह टूट चुकी है। वह संवाद देती है कि माँ से कहना कि मैं वहीं आकर रहूँगी। वहाँ भाई-भाभियों की नौकरी करके अपना गुजारा कर लूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक जगह पड़ी रहूँगी, लेकिन अब यहाँ रहना कठिन हो गया है। यदि माँ मुझे यहाँ से न ले जाएगी तो मुझे आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ेगा। अब वह भला बथुआ-साग अर्थात् बेकार की चीजें खाकर कब तक गुजारा करे। उसे भला किसके लिए जीना है ? उसके जीने का कोई मकसद भी नहीं रह गया है।

विशेष :

  1. बड़ी बहुरिया की मार्मिक दशा का यथार्थ अंकन हुआ है।
  2. संवाद-शैली अपनाई गई है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

3. हरगोबिन संवदिया!” संवाद पहुँचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना सहज काम नहीं। गाँव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचोर और पेटू आदमी ही संवरिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मजदूरी लिए ही जो गाँव-गाँव संवाद पहुँचावे, उसको और क्या कहेंगे ?’“औरतों का गुलाम। जरा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए, ऐसे मर्व को भी भला मर्व कहेंगे ? किंतु, गाँव में कौन ऐसा है, जिसके घर की माँ-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुँचाया है ? लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित कहानी ‘संवदिया’ से उद्धृत है। इस गद्यांश में संबदिया के स्वरूप और काम पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि हरगोबिन एक विशेष प्रकार का संवदिया है। संवाद पहुँचने का काम सभी नहीं कर सकते। यह भी एक कला है। एक अच्छा संवदिया भगवान के घर से ही बनकर आता है। संवदिया को दिए गए संवाद का एक-एक शध्द याद रखना पड़ता है और उसे उसी लहजे में कहना पड़ता है जैसे उसे सुनाया गया हो। ठीक उसी प्रकार संवाद को सुनाना कोई आसान काम नहीं है। वैसे गाँव के लोगों के मन में संवदिया के प्रति गलत सोच है। उनका कहना है कि संवदिया एक निठल्ला और कामचोर व्यक्ति होता है। वह खाने का पेटू होता है। ऐसा आदमी ही संवदिया का काम करता है। ऐसे व्यक्ति के आगे-पीछे कोई नहीं होता अर्थात् वह घर-गृहस्थी के बंधन से मुक्त होता है। यह संवदिया बिना कोई मजदूरी लिए अपना काम करता है और गाँव-गाँव संवाद पहुँचाता है। ऐसा व्यक्ति औरतों की गुलामी के लिए यह काम करता है। कोई औरत उससे थोड़ा मीठा बोल दे तो वह नशे में आ जाता है। ऐसे व्यक्ति को मर्द नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद हरगोबिन गाँव के हर घर की माँ, बहू-बेटी का संवाद पहुँचाता रहता है लेकिन वह ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है। यह एक अनोखा संवाद है।

विशेष :

  1. संवदिया के काम पर प्रकाश डाला गया है।
  2. गाँव के लागों की संवदिया के बारे में धारणा को स्पष्ट किया गया है।
  3. सरल एवं सुबोध शैली अपनाई गई है।

4. हरगोबिन का मन कलपने लगा-तब गाँव में क्या रह जाएगा ? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर चली जावेगी। …….. किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा ? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुजारा कर रही है ? सुनने वाले हरगोबिन के गाँव का नाम लेकर थूकेंगे – कैसा गाँव है, जहाँ लक्ष्मी जैसी बहुरिया बुख भोग रही है।

प्रसंग : प्रस्तुत गध्यांश फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित मार्मिक कहानी ‘संवदिया’ से अवतरित है। गाँन की बड़ी बहुरिया हरगोबिन संवदिया के माध्यम से अपने पीहर यह संदेश भिजवाती है कि वह यहाँ घोर कष्ट में जी रही है अतः वे उसे यहाँ से ले जाएँ। हरगोबिन बड़ी बहुरिया के गाँव जा पहुँचता है।

व्याख्या : हरगोबिन ने बड़ी बहुरिया के गाँव में प्रवेश करने से पूर्व बड़ी बहुरिया की दशा पर गहराई से विचार किया। उसका मन इस स्थिति से दुखी हो गया। उसे लगा कि यदि बड़ी बहुरिया हमारा गाँव छोड़कर यहाँ चली आई तो हमारे गाँव की बड़ी हेठी हो जाएगी। बड़ी बहुरिया तो गाँव की लक्ष्मी है। उसका वहाँ से चले आना कोई सामान्य बात नहीं है। वह बड़ी बहुरिया का संवाद भला किस मुँह से सुना पाएगा अर्थात् उसमें इतनी हिम्मत ही नहीं है कि वह उस संवाद को उसके पीहर में सुना सके।

भला वह यह कैसे कह पाएगा कि बड़ी बहुरिया को खाने-पीने की चीजों का भी घोर अभाव है और वह बथुआ का साग (साधारण चीज) खाकर अपना गुजारा चला रही है। उसकी ऐसी दशा को सुनकर इस गाँव के लोग हमारे गाँव पर थूकेंगे, बुरा-भला कहेंगे। वे यह कहकर हमारे गाँव का अपमान करेंगे कि यह गाँव कितना घटिया है जो अपनी लक्ष्मी जैसी बहुरिया को दुखी जीवन जीने को विवश कर रहा है। हरगोबिन भला अपने गाँव की यह बुराई किस प्रकार सुन पाएगा।

विशेष :

  1.  हरगोबिन के अंतर्द्वद्व को कुशलतापूर्वक उभारा गया है।
  2. स्थिति का यथार्थ अंकन हुआ है।
  3. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

5. बूढ़ी माता बोली, “मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहाँ अब क्या रह गया है ? जमीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली”।”
नहीं मायजी! जमीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। दूट भी गई है, है तो आखिर बड़ी हवेली ही। ‘सवांग’ नहीं है, यह बात ठीक है! मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गाँव ही परिवार है। हमारे गाँव की लक्ष्मी है बड़ी बहुरिया “गाँव की लक्ष्मी गाँव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी ? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की जिद करते हैं।”

प्रसंग : प्रस्तुत संवाद बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता तथा हरगोबिन के मध्य का है। इसे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘संवदिया’ से लिया गया है। बूढ़ी माता अपनी बेटी का संबाद न पाकर दु:खी होती है। वह अपनी चिता प्रकट करते हुए कहती है

व्याख्या : मैं तो अपने बेटे से कह रही थी कि वह जाकर अपनी दीदी को यहीं लिवा लाए। अब वह यहीं रहेगी। अब उसका वहाँ रह ही क्या गया है। उसकी जमीन-जायदाद तो पहले ही चली गई। उसके तीनों देवर भी शहर में जाकर रहने लगे हैं। अब उनमें से कोई भी उसकी बेटी की खोज-खबर नहीं लेता। अब उसकी बेटी तो बिल्कुल एकाकी जीवन बिता रही है।

बूढ़ी माता की इस चिंता को सुनकर हरगोबिन बात को सँभाल कर झूठी दिलासा देता है कि अभी भी वहाँ काफी जमीन-जायदाद शेष है। उसके लिए वही काफी है। हवेली दूट भले ही गई हो फिर भी काफी बड़ी है। बड़ी बहुरिया का तो सारा गाँव ही उसका अपना परिवार है। आपकी बेटी हमारे गाँव की लक्ष्मी है, बड़ी बहुरिया है। गाँव की लक्ष्मी को शहर जाना शोभा नहीं देता। उसके देवर तो हर बार उसे शहर ले जाने की जिद करते हैं।

इस प्रकार हरगोबिन वास्तविकता पर पर्दा डालने का प्रयास करता है ताकि बूढ़ी माता के चित्त को क्लेश न हो।

विशेष :

  1. हरगोबिन की व्यवहार कुशलता एवं वाक् चातुर्य देखते बनता है।
  2. संवाद-शैली अपनाई गई है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

6. संवदिया डटकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किंतु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है।…….. यह उसने क्या किया ? क्या कर दिया ? वह किसलिए आया था ? वह झूठ क्यों बोला ?……. नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देना-अक्षर, अक्षर, ‘मायजी, आपकी इकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किसके लिए वह इतना सहेगी!……. बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहेगी….!’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वर ‘रेणु’ द्वारा रचित मार्मिक कहानी ‘संवदिया’ से अवतरित है। हरगोबिन एक संवदिया ज़रूर है, पर वह मान्य धारणा के विपरीत है। वह केवल खाने-पीने के लिए यह काम नहीं करता।

व्याख्या : संवदिया के बारे में गाँव वालों ने यह भ्रांत धारणा पाल रखी थी कि वह खूब डटकर खाना खाता है और जब उसका पेट पूरी तरह से भर जाता है, तब वह अफर कर सो जाता है। पर वास्तविकता इससे हटकर है। संवदिया जब बड़ी बहू के पीहर जाता है तब वह वहाँ खाना खाकर सोने का प्रयास करता है, पर उसे नींद नहीं आती, वह उधेड़-बुन में पड़ा रहता है। उसे अपने ऊपर ग्लानि होती है कि उसने क्या कर दिया ? वह सोचता है कि उसने झूठ क्यों बोला ? वह तो बड़ी बहुरिया का संदेश देने आया था, पर उस काम को पूरा नहीं कर सका।

उसने यह क्यों कह दिया कि कोई संवाद नहीं। उसने बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया की वास्तविक स्थिति क्यों नहीं बताई ? अब वह निश्चय करता है कि अब वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद अवश्य सुना देगा कि उनकी इकलौती बेटी बड़े कष्ट में है। अतः उसे आज ही अपने पास बुलवा लीजिए। वह भला इतनी तकलीफ वहाँ रहकर क्यों सहे ? बड़ी बहुरिया तो पीहर आकर रहना चाहती है, भले ही उसे भाभी के बच्चों की जूठन ही खाकर गुज़र क्यों न करनी पड़े।

विशेष :

  1. इस गद्यांश में संवदिया के मन के अंतद्वद्व को उभारा गया है।
  2. चिंतनपूर्ण शैली अपनाई गई है।
  3. विषयानुकूल, पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

7. हरगोबिन होश में आया। ……… बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, “‘बड़ी बहुरिया! …. मुझे माफ़ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। …………. तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ, सारे गाँव की माँ हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूँगा। तुम्हारा सब काम करूँगा। …… बोलो, बड़ी माँ, तुम ….. तुम …….. गाँव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो…..!”

प्रसंग : प्रस्तुत पँंक्तियाँ हमारी पाठययुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कहानी ‘संवदिया’ से उद्धृ है। इस कहानी के रचयिता फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। हरगोबिन संवदिया बड़ी बहुरिया का संवाद लेकर उसके मायके गया तो था पर वहाँ उस संदेश को सुना नहीं पाया। वह अपने अंतर्द्वंद से उबर नहीं पाया था। वह वहाँ से अपने गाँव लौट आया और गिरता-पड़ता बड़ी बहुरिया के यहाँ पहुँचा। वह कुछ-कुछ बेहोशी की अवस्था में था।

व्याख्या : गाँव लौटकर हरगोबिन (संवदिया) बड़ी बहुरिया की हवेली पर पहुँचा। वहाँ बड़ी बहुरिया ने उसे दूध पिलाया तो वह होश में आया। सामने बड़ी बहुरिया को बैठी देखकर उसने उसके पैर पकड़ लिए और माफी माँगने लगा क्योंक वह बड़ी बहुरिया का संवाद उसके पीहर में कह नहीं पाया। वह अपनी असमर्थता पर पछता रहा था। थोड़ी हिम्मत जुटाकर वह बड़ी बहुरिया से प्रार्थना करने लगा कि वह इस गाँव को छोड़कर न जाए।

वह बोला-मैं वादा करता हूँ कि मैं यहाँ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। वह स्वयं को उसका बेटा बताता है और बड़ी बहुरिया को अपनी माँ कहता है। बड़ी बहुरिया तो सारे गाँव की माँ है। हरगोबिन निश्चय प्रकट करता है कि अब वह निठल्ला नहीं बैठेगा और उसके (बड़ी बहुरिया) के सारे काम स्वयं करेगा। इतना सब कहने के बाद वह बड़ी बहुरिया से केवल यह आश्वासन चाहता है कि अब वह गाँव को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाएगी। वह इसी हवेली में रहेगी।

विशेष :

  1. हरगोबिन (संवदिया) की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।
  2. इसमें संवदिया का बदला स्वरूप चित्रित हुआ है।
  3. भाषा सरल, सुबोध एवं पात्रानुकूल है।

Hindi Antra Class 12 Summary

source

  • Balkishan Agrawal

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