Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary – Kachcha Chittha Summary Vyakhya

कच्चा चिट्ठा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary

कच्चा चिट्ठा – ब्रजमोहन व्यास – कवि परिचय

प्रश्न :
ब्रजमोहन व्यास के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : ब्रजमोहन व्यास का जन्म 1886 ई. में इलाहाबाद (उ.प्र) में हुआ था। इन्होंने पं. गंगानाथ झा और पं. बालकृष्ण भट्ट से संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। पं. ब्रजमोहन व्यास सन् 1921 से 1943 तक इलाहाबाद नगर पालिका के कार्यपालक अधिकारी रहे। सन् 1944 से 1951 तक ‘लीडर’ समाचारपत्र समूह के जनरल मैनेजर रहे! 23 मार्च 1963 को इलाहाबाद में ही उनकी मृत्यु हुई।

व्यास जी को मूर्तियाँ, शिलाले, सिक्के आदि एकत्रित करने का बड़ा शौक था। उन्होंने ही इलाहाबाद संग्रहालय का प्रारंभ किया तथा उसे एक नये भवन में स्थापित करा दिया। इसके लिए उन्होंने जी-तोड़ परिश्रम किया। उनके इस संग्रहालय में दो हजार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हजार मृणमूर्तियाँ, कनिष्क के शासनकाल की प्राचीनतम बौद्ध मूर्ति, जुराहों की चंदेल प्रतिमाएँ, सैकड़ों रंगीन चित्र, सिक्के आदि एकत्रित हैं। उन्होंने संस्कृत, हिंदी, अरवी-फारसी के चौदह हजार हस्तलिखित ग्रंधों का संकलन भी किया। ये सभी इसी संग्रहालय में हैं। इस संग्रहालय के लिए वे बड़े से बड़े अधिकारी तक से भिड़ जाते थे।

रचना-परिचय : व्यास जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- जानकी हरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद, पं. बालकृष्ण भट्ट (जीवनी), महामना मदन मोहन मालवीय (जीवनी), मेरा कच्चा चिट्ठा (आत्मकथा)।

भाषा-शिल्प : व्यास जी ने अपने लेखन में सामान्य जन की भाषा को अपनाया है। उन्होंने कुछ विशिष्ट प्रयोग भी किए हैं, जैसे-इक्के को ठीक कर लिया, कील-काँटे से दुरुस्त था, मेरे मस्तक पर हस्बमामूल चंदन था, सुराब के पर। व्यास जी ने लोकोक्तियों का भी सटीक प्रयोग किया है। ‘कच्चा चिट्ठा’ में प्रयुक्त लोकोक्तियों के उदाहरण हैंचोर की दाढ़ी में तिनका, ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जायँ, चोर के घर छिछोर पैठा, वह म्याऊँ का ठौर था।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

प्रस्तुत पाठ पं. ब्रजमोहन की आत्मकथा का एक अंश है। इसमें उनके श्रम कौशल और मेधा कार्य का कच्चा चिट्डा है। लेखक विभिन्न स्थलों से पुरातत्त्व के महत्त्व की धरोहर सामग्री को बगैर विशेष व्यय के संकलित करने में दक्ष है। इसी कला का परिचय इस पाठ में दिया गया है।

Kachcha Chittha Class 12 Hindi Summary

यह पाठ लेखक ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्र’ का एक अंश है। लेखक बिना कोई व्यय किए पुरातत्त्व संबंधी सामग्री का संकलन संग्रहालयों के लिए करते रहे हैं। यहाँ उसी प्रयास का वर्णन है। सन् 1936 के लगभग की बात है। लेखक अपने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार कौशांबी गया था। वहाँ का काम निबटाकर उसने ढाई मील दूर पसोवा जाने का निश्चय किया। वहाँ के लिए एक इक्का ठीक कर लिया। पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ है। यहाँ प्राचीनकाल से प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता है। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी, जिसकी गुफा में बुद्ध देव ब्यायाम करते थे। वहाँ एक विषधर सर्प रहता था। यह भी किंवदंती है कि इसी के निकट सम्राट् अशोंक ने एक स्तूप बनवाया था। इसमें महात्मा बुद्ध के थोड़े-से केश और नाखूनों के खंड रखे गए थे।

अब पसोवा में स्तूप और व्यायामशाला के चिह्न नहीं हैं पर एक पहाड़ी अवश्य है। यह पहाड़ी ही बताती है कि यह स्थान वही है। लेखक जहाँ कहीं भी जाता है वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता। उसे गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। कौशांबी लौटते समय एक छोटा-से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के नीचे एक चतुर्मुंख शिव की मूर्ति मिली। लेखक ने उसे उठाकर इक्के पर रख लिया। उसका वजन लगभग 20 सेर था।

उसे नगरफालिका के संग्रहालय से संबंधित एक मंडप के नीचे रख दिया। इसके कुछ दिनों बाद गाँव वालों को इसका पता चल गया। उनका संदेह लेखक पर ही गया क्योंकि वह इस तरह के कामों में मशहूर हो चुका था। चपरासी ने सूचना दी कि गाँव के 15-20 आदमी मिलने आए हैं। उन्हें कमरे में बुलवा लिया गया। गाँव के मुखिया ने नतमस्तक होकर मूर्ति को वापस ले जाने की प्रार्थना की। लेखक ने उनकी प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेखक ने अपनी लॉरी से मूर्ति को सम्मान सहित अडुे तक पहुँचा दिया। गाँव वालों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा।

लेखक उसी वर्ष या अगले वर्ष पुन: कौशांबी गया। वह किसी अच्छी चीज मिलने की तलाश में था। तभी उसे एक खेत की मेंड पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी दिखाई दी। यह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की थी। जब लेखक उस मूर्ति को उठवाने लगा तभी खेत निराती एक बुढ़िया उस पर अपना हक जताने लगी। लेखक ने बुढ़िया के मुँह लगना ठीक न समझा। लेखक ने बुढ़िया को दो रुपए दिए तो बुढ़िया मूर्ति उठा देने को तैयार हो गई।

अब वह मूर्ति प्रयाग संग्रहालय में प्रदर्शित है। एक बार उसे एक फ्रांसीसी देखने आया। लेखक ने उसे मूर्ति बड़े उत्साहपूर्वक दिखाया, पर बाद में पता चला वह फ्रांस का एक बड़ा लीडर है। उसने लेखक से कहा कि वह इस मूर्ति को उसको दस हजार रुपयों में बेच दे। लेखक लालच में नहीं आया और यह मूर्ति अभी तक संग्रहालय का मस्तक ऊँचा कर रही है। यह मूर्ति उन बोधिसत्व की मूर्तियों में से है जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। ऐसा लेख इस मूर्ति के पदस्थल पर अंकित है।

सन् 1938 की एक घटना का और उल्लेख किया गया है। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया का पुरातत्त्व विभाग कौशांबी में श्रीमजूमदार की देख-रेख में खुदाई करवा रहा था। उस समय के. एन. दीक्षित डायरेक्टर जनरल थे। वे लेखक के परम मित्र थे। उन्हें प्रयाग संग्रहालय से बड़ी सहानुभूति थी। खुुदाई के दौरान मजूमदार साहब को पता चला कि कौशांबी से 4-5 मील दूर एक गाँव हजियापुर है। वहाँ किसी व्यक्ति के पास भद्रमथ का एक भारी शिलालेख है। मजूमदार उसे उठवा लाना चाहते थे। गाँव के जमींदार (गुलजार मियाँ) ने इस पर ऐतराज किया।

वह लेखक को बहुत मानता था क्योंकि उन्होंने गुलजार मियाँ के भाई को म्युनिसिपैलिटी में चपरासी की नौकरी दी थी। वह शिलालेख रिपोर्ट लिखवाने के बावजूद मजूमदार साहब को नहीं मिला। उन्होंने इसकी रिपोर्ट दीक्षित साहब को लिखकर दिल्ली भिजवा दी। एक दिन दीक्षित साहब का एक अर्धसरकारी पत्र लेखक को मिला। इसमें लेखक को शिलालेख न देने के लिए गुलजार मियाँ को उकसाने का आरोप लगाया गया था तथा धमकी दी गई थी कि यदि आपका (लेखक का) यही रवैया रहा तो यह विभाग उनके कामों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखेगा।

एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर लेखक के बदन में आग लग गई। लेखक ने तुरंत उत्तर लिखा-“मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ। “मैंने किसी को नहीं उकसाया। “प्रयाग संग्रहालय ने इस भद्रमथ के शिलालेख को 25 रुपए का खरीदा है” ‘यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो 25 रुपए देकर ले लें, मैं गुलजार को लिख दूँग।।” इसके बाद उनका एक विनम्र पत्र आया जिसमें उन्होंने पूर्व पत्र के लिए खेद प्रकट किया। गुलजार ने 25 रुपए लेकर वह शिलालेख दे दिया।

लेखक ने अन्य शिलालेख की तलाश में गुलजार मियाँ के मकान में डेरा डाल दिया। उनके मकान के सामने एक पुख्ता सजीला कुआँ था। चबूतरे के ऊपर चार पक्के खंभे थे। लेखक की दृष्टि बँडेर पर गई। इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राही अक्षरों में एक लेख था। गुलजार ने खंभों को खुदवाकर उसे लेख को निकलवाकर लेखक के हवाले कर दिया। भद्रमथ के शिलालेख की क्षति-पूर्ति हो गई।

उसी साल मैसूर में ओरियंटल कांफ्रेंस का अधिवेशन था। लेखक ने सुन रखा था कि वह स्थान ताम्रमूर्तियों और तालपत्र पर हस्तलिखित पोथियों की मंडी है। लेखक इन्हीं के लोभ में वहाँ चला गया। लेखक ने मद्रास (चेन्नई) में सस्ते दामों में 8-10 चित्र खरीदे। पुस्तकों का मूल्य अधिक था। वहाँ के लोगों ने बताया कि श्रीनिवास जी हाईकोर्ट के वकील हैं और उनके पास सिक्कों तथा कांस्य-पीतल की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। उनसे लेखक ने चार-पाँच सौ रुपए की पीतल और कांस्य की मूर्तियाँ खरीदीं। बहुत से सिक्के उन्होंने मुफ्त में ही दे दिए। उनके यहाँ 4-5 बड़े-बड़े नटराज भी थे। उनके दाम $20-25$ हजार रूपए थे।

लेखक संग्रह करता है पर आशिक नहीं है। भाई कृष्णदास संग्रहकर्त्ता भी हैं और आशिक भी हैं। दोपहर बाद लेखक मैसूर स्टेशन आया। वह मैसूर पहुँचकर अधिवेशन में शामिल हुआ। वहाँ से वे रामेश्वरम् आए। अभी तक लेखक को तालपत्र की पुस्तक नहीं मिली थी। लेखक ने राजा बनकर तालपत्र पर लिखी पुस्तक लाने वाले को पंडा बनाने की घोषणा की तो एक पंडा दौड़कर आया और तालपत्र पर लिखित पुस्तकों का एक छोटा गट्रा ले आया। लेखक उन्हें लेकर प्रयाग लौट आया।

प्रयाग संग्रहालय में काफी महत्त्वपूर्ण सामग्री आ गई थी। जगह कम पड़ने लगी। 8-10 बड़े कमरे इसके लिए निर्धारित कर दिए गए थे। लेखक ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करके ‘संग्रहालय निर्माण कोष’ बनाया। इस कोष में दस वर्ष के भीतर दो लाख रुपए एकत्रित हो गए। इसके लिए कंपनी बाग में एक भूखंड भी मिल गया। लेखक संग्रहालय भवन का शिलान्यास पं. जवाहर लाल नेहरू से करवाना चाहता था। डॉ. ताराचंद ने शिलान्यास का पूरा कार्यक्रम निश्चित कर दिया। निश्चित समय पर अभूतपूर्व समारोह में जवाहर लाल जी ने शिलान्यास कर दिया। भवन का नक्शा बन गया तथा भवन निर्मित भी हो गया। यह संग्रहालय जिन चार महानुभावों की सहायता से बन पाया वे हैं- राय बहादुर कामता प्रसाद कक्कड़ (तत्कालीन चेयरमैन), हिज हाइनेस श्री महेंद्र सिंह जू देव नागौद नरेश और उनके सुयोग दीवान लाल भार्गवेंद्रसिंह तथा लेखक का स्वामीभक्त अर्दली जगदेव।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

किंवदंती = लोगों द्वारा कही गई (Saying by people), सन्निकट = पास, नजदीक (Near), छूँछे = बुद्धू (बनना, बनाना) खाली (Empty), सवारी = वाहन, यान (Conyeance), अंतर्धान = छिप जाना, गायब हो जाना (Disappear), प्रख्यात = बहुत प्रसिद्ध (Very famous), इत्तिला = सूचना, खबर (Information), सुरखाब का पर = लाल रंग वाले सुंदर एवं कोमल पक्षी के पंख (Redfeathers of a bird), उत्कीर्ण = खुदा हुआ (Engraved), प्रतिवाद = विरोध, खंडन (Opposition), बंडेर = छाजन के बीचोंबीच लगाया जाने वाला बल्ला जिस पर छप्पर टिका रहता है (A support), प्राचीन = पुराना (Old), बिसात = बिछाई जाने वाली चीज (Spreadover), लड़कांध = छोटी आयु का (Lees age), प्रभूति = इत्यादि (Etc), सहाय्य = सहायता, मदद, मैत्री (Help), न कूकुर भूँका, न पहरू जागा = जरा-सा भी खटका न होना (Nonoise), झक मारना = बेकार बात करना (Useless Talks), मुँह लगना = व्यर्थ समय बर्बाद करना (Towaste time), खून का घूँट पीकर रह जाना = गुस्से को दबा जाना (To supress anger), सुरखाब का पर लगना = खास बात होना (Special), मुँह में खून लगना = आदत पड़ जाना (Habitual), खाक छानना = भटकना, खोज करना (In search of), पानी-पानी होना = शर्मिदा होना (Ashamed), छक्के छूटना = घबरा जाना (Inpurplex), दिल फड़कना = जोश उत्पन्न करना (Excited), नून-मिर्चा लगाना = भड़काना (Toprovoke), पी जाना = छिपाना, सहन करना (To bear), डेरा डालना = अडुा जमाना (To capture), रुपये में तीन अठन्नी भुनाना = अधिकतम लाभ लेना (To gain maximum), इंगित = इशारा (Point), स्थानांतरित = बदली (Transfer), हस्तक्षेप = दखल (Interference), स्वीकृति = इजाजत (Permission), परामर्शदाता = सलाहकार (Advisor), कृतघ्नता = अहसान न मानना (Ungratefulness), संरक्षण = रक्षा में, देखभाल में (In patronage)।

कच्चा चिट्ठा सप्रसंग व्याख्या

1. मैं कहीं जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता। यहाँ कोई विशेष महत्त्व की चीज तो नहीं मिली, पर गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मृणमूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। इक्के पर कौशांबी लौटा। एक-दूसरे रास्ते से। एक छोटे-से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे, एक चतुर्मुख शिव की मूर्ति देखी। वह वैसे ही पेड़ के सहारे रखी थी जैसे उठाने के लिए मुझे ललचा रही हो। अब आप ही बताइए, मैं करता ही क्या ? यदि चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्त्तव्य पालन करना ही पड़ता है। इक्के से उतर कर इधर-उधर देखते हुए उसे चुपचाप इक्के पर रख लिया। 20 सेर वजन में रही होगी। “न कूकुर भूँका, न पहरू जागा।” मूर्ति अच्छी थी। पसोवे से थोड़ी-सी चीजों के मिलने की कमी इसने पूरी कर दी। उसे लाकर नगरपालिका में संग्रहालय से संबंधित एक मंडप के नीचे, अन्य मूर्तियों के साथ रख दिया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प. ब्रजमोहन की आत्मकथा ‘कच्चा चिट्डा’ से अवतरित है। इसमें लेखक अपने जीवन में घटी घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। वह अपने संग्रहालय के लिए मूर्तियाँ, शिलालेख एवं अन्य सामग्री जुटाने के प्रयास में रहता था। यहाँ उसी एक प्रयास का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि वह जहाँ कहीं जाता है, वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता अर्थात् कुछ-न-कुछ महत्वपूर्ण वस्तु लेकर ही आता है। अबकी बार वह कौशांबी की यात्रा पर गया हुआ था। वह पसोवा गाँच से कुछ बढ़िया मृणमूर्तियाँ, सिक्के और मनके लेकर कौशांबी लौट रहा था। उसका अबकी बार रास्ता दूसरा था। इस रास्ते में उसने गाँव के पास पत्थरों के ढेर के बीच और पेड़ के नीचे एक चतुर्भुज शिव की मूर्ति देखी। वह पेड़ के सहारे रखी हुई थी। वह मूर्ति लेखक को ललचाती सी प्रतीत होती थी। अब लेखक भला क्या करता।

लेखक की स्थिति उस बिल्ली के समान हो गई जो वैसे तो चांद्रायण का व्रत करती है पर चूहे को देखकर व्रत तोड़ने पर मजबूर हो जाती है। लेखक भी मूर्ति को देखकर उसे उठाने को मजबूर हो जाता है। पहले उसने इधर-उधर देखा और फिर मूर्ति को चुपचाप अपने इक्के पर रखवा लिया। इस मूर्ति का वजन लगभग 20 सेर रहा होगा। किसी को कुछ पता नहीं चला, कोई हलचल नहीं हुई। लेखक को इस बात की तसल्ली हुई कि पसोवे में उसे थोड़ी ही चीजें मिल पाई थीं, अब उसकी कमी इस मूर्ति ने पूरी कर दी। लेखक ने उस मूर्ति को लाकर नगरपालिका में उस स्थान पर रख दिया जहाँ अन्य मूर्तियाँ रखी हुई थीं। वह स्थान संग्रहालय से संबंधित एक मंडप था।

विशेष :

  1. आत्मकथात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
  2. लेखक ने जहाँ एक ओर देशज शब्द-‘ छूँछे’ का प्रयोग किया है, वहीं तत्सम शब्द भी प्रयुक्त किए है-चतुर्मुख, मृणमूर्ति आदि।
  3. घटना का वर्णन चित्रात्मक है।

2. यह रवैया मेरा बराबर जारी रहा। उसी वर्ष या संभवतः उसके दूसरे वर्ष मैं फिर कौशांबी गया और गाँव-गाँव, नाले-खोले घूमता-फिरता झख मारता रहा। भला यह कितने दिन ऐसे चल सकता अगर बीच-बीच में छठे-छमासे कोई चीज इतनी महत्त्वपूर्ण न मिल जाती जिससे विल फड़क उठता ? बराबर यही सोचता कि “न जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ” और यही एक दिन हुआ। खेतों की डाँड़-डाँड़ जा रहा था कि एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी देखी। मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवाए सिर के पदस्थल तक वह संपूर्ण थी।

मैं लौट कर पाँच-छह आदमी और लटकाने का सामान गाँव से लेकर फिर लौटा। जैसे ही उस मूर्ति को मैं उठवाने लगा वैसे ही एक बुढ़िया जो खेत निरा रही थी, तमककर आई और कहने लगी, “बड़े चले हैं मूरत उठावै। ई हमार है। हम न देबै। दुई दिन हमार हर रुका रहा तब हम इनका निकरवावा है। ई नकसान कउन भरी ?” मैं समझ गया। बात यह है कि मैं उस समय भले आदमी की तरह कुर्ता-शोती में था। इसीलिए उसे इस तरह बोलने की हिम्मत पड़ी। सोचा कि बुढ़िया के मुँह लगना ठीक नहीं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिद्डा’ से अवतरित है। लेखक नगरपालिका के संग्रहालय के लिए पुरातत्व की चीजों की खोज में इधर-उधर जाता रहता था। यहाँ उसी एक प्रयास का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक द्वारा महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का सिलसिला चलता रहा। लेखक एक बार फिर से कौशांबी गया। वह गाँवों की खाक छान रहा था। वह कोई-न-कोई महत्त्वपूर्ण चीज की तलाश में था। वह यही सोचता था कि न जाने किस वेश में भगवान मिल जाएँ अर्थात् न जाने कहाँ कोई मूल्यवान वस्तु मिल जाए। वह खेतों की मेड़ों से जा रहा था कि उसे एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुंदर मूर्ति पड़ी दिखाई दी। यह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की बनी थी।

इसका सिर नहीं था, पर वह पदस्थल तक पूरी थी। वह गाँव से 5-6 आदमी और आवश्यक सामान लेकर आया। जैसे ही उसके आदमियों ने मूर्ति को उठाना चाहा, खेत में काम करती एक बुढ़िया तमतमाकर आ गई और मूर्ति को अपना बताने लगी। वह कहने लगी-यह हमारी है, इसे हम न देंगे। इसकी वजह से हमारा हल दो दिन तक नहीं चल सका। इस नुकसान को कौन भरेगा ? लेखक समझ गया कि बुढ़िया लालची है। उस समय लेखक कुर्ता-धोती में था अत: बुढ़िया इस तरह बोल रही थी। लेखक ने उस बुढ़िया के मुँह लगना ठीक नहीं समझा। (बाद में वह बुढ़िया दो रुपए लेकर मूर्ति देने को तैयार हो गई।)

विशेष :

  1. लेखक की पुरानी वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति का पता चलता है।
  2. सरल, सुबोध भाषा एवं विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

3. दूसरे की मुद्रा की झनझनाहट गरीब आदमी के हृदय में उत्तेजना उत्पन्न करती है। उसी का आश्रय लिया। मैंने अपनी जेब में पड़े हुए रुपयों को ठनठनाया। मैं ऐसी जगहों में नोट-वोट लेकर नहीं जाता। केवल ठनठनाता। उसकी बात ही और होती है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ का अंश है। लेखक को एक स्थान पर बोधिसत्च की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति दिखाई दी। वह उस मूर्ति को उठवा ही रहा था कि खेत पर काम कर रही बुढ़िया ने उसे रोक दिया। लेखक को वह बुढ़िया लालची लगी। उसने रुपयों का लालच देने का प्रयास किया। यहाँ उसी स्थिति का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि जब गरीब व्यक्ति दूसरे की जेब में धन की आहट पा जाता है तब उसे प्राप्त करने के लिए उसकी उत्तेजना बढ़ जाती है। वह उस धन को पाने को लालायित हो उठता है। खेत में काम कर रही गरीब बुढ़िया ने जब बोधिसत्व की मूर्ति को उठाने में आनाकानी की या रोड़ा अटकाया तब लेखक ने अपनी जेब में पड़े सिक्कों को खनकाया। इसका बुढ़िया पर अपेक्षित प्रभाव पड़ा। लेखक ऐसे व्यक्तियों की मानसिकता से भली-भाँति परिचित है। अत: वह ऐसी जगहों पर नोट लेकर नहीं जाता बल्कि खनकने वाले रुपए अर्थात् सिक्के ही लेकर जाता है। सिक्कों की बात ही कुछ अनोखी होती है। सिक्कों की उनठनाहट सामने वाले व्यक्ति को आकर्षित करती है। बुढ़िया भी, इस आशा में कि उसे भी कुछ सिक्कों की प्राप्ति हो जाएगी, उस मूर्ति को देने को तैयार हो गई।

विशेष :

  1. धन का प्रभाव दर्शाया गया है।
  2. भाषा सरल एवं सहज है।
  3. ठनठनाना, झनझनाहट जैसे देशज शब्दों का प्रयोग है।

4. एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर मेरे बदन में आग लग गई। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ पर किसी की भी अकड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता। आग्नेय अस्त्र से मेरे बदन में आग लग जाती है। वरुणास्त्र से पानी-पानी हो जाता हूँ। मैंने तुरंत दीक्षित जी को उत्तर दिया, जो थोड़े में इस प्रकार था-मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ से अवतरित है। एक दिन लेखक को दीक्षित साहब का अर्धसरकारी पत्र मिला जिसका आशय यह था, “कौशांबी से मेरे पास रिपोर्ट आई है कि आपके उकसाने के कारण जमींदार गुलजार मियाँ भद्रमथ के एक शिलालेख को देने में आपत्ति करता है और फौजदारी पर आमादा है। मैं इस मामले को बढ़ाना नहीं चाहता परंतु यह कहे बिना रह भी नहीं सकता कि सरकारी काम में आपका यह हस्तक्षेप अनुचित है।” खैर, यहाँ तक तो खून का घूँट किसी तरह पिया जा सकता था पर इसके आगे उन्होंने लिखा, “यदि यही आपका रवैया रहा तो यह विभाग आपके कामों में वह सहानुभूति न रखेगा जो उसने अब तक बराबर रखी है।”

व्याख्या – एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर लेखक के बदन में आग लग गई। वह सब-कुछ सहन कर सकता था, पर किसी की भी अकड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता था। तुरंत दीक्षितजी को उत्तर दिया, जो थोड़े में इस प्रकार था, “मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ। उसमें जो कुछ मेरे संबंध में लिखा गया है, वह नितांत असत्य है। मैंने किसी को नहीं उकसाया। मैं आपसे स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूँ कि आपके विभाग की सहानुभूति चाहे रहे या न रहे, प्रयाग संग्रहालय की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी।

प्रयोग संग्रहालय ने इस भद्रमथ के शिलालेख को 25 रूपये का खरीदा है। पर आपके विभाग से, विशेषकर आपके होते हुए झगड़ना नहीं चाहता। इसलिए यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो 25 रुपये देकर ले लें, मैं गुलजार को लिख दूँगा ।”

5. गाँव के एक जमींदार गुलजार मियाँ थे, जिनका गाँव में दबदबा था, एतराज किया। गुलजार मियाँ हमारे भक्त थे और मैं भी उन्हें बहुत मानता था, यद्यपि उनकी भक्ति और मेरा मानना दोनों स्वार्थ से खाली नहीं थे। मैंने उनके भाई दिलदार मियाँ को म्युनिसिपैलिटी में चपरासी की नौकरी दे दी थी और उन लोगों की हर तरह से सहायता करता था। वे मुझे आस-पास के गाँवों से पाषाण-मूर्तियाँ, शिलालेख इत्यादि देते रहते थे। मजूमदार साहब ने जब उसे जबरदस्ती उठवाना चाहा तो वे लोग फौजदारी पर आमादा हो गए। बोले, “यह इलाहाबाद के अजायबघर के हाथ 25 रुपये का बिक चुका है, अगर बिना व्यास जी के पूछे इसे कोई उठावेगा तो उसका हाथ-पैर तोड़ देंगे।” मजूमदार साहब ने पच्छिम सरीरा के थाने में रपट की, पर किसी की कुछ नहीं चली। गुलजार मियाँ ने उस शिलालेख को नहीं दिया। मजूमदार साहब ने इस सबकी रिपोर्ट नोन-मिर्च लगा कर दीक्षित साहब को दिल्ली लिख भेजी। दीक्षित साहब की साधु प्रकृति के भीतर जो हाकिम पड़ा था, उसने करवट ली।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प.ं ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘कच्चा चिद्धा’ से लिया गया है। एक शिलालेख को लेकर लेखक और मजूमदार साहब में ठन गई थी। गुलजार मियाँ लेखक का आदमी था, वह मजूमदार साहब के प्रयास का विरोध कर रहा था।

व्याख्या : जब मजूमदार साहब ने उस शिलालेख को उठवाना चाहा तो गाँव के एक जमींदार गुलज़ार मियाँ ने इसका सख्त विरोध किया। उसका सारे गाँव में दबदबा था। यह गुलजार मियाँ लेखक का भक्त था क्योंकि लेखक ने उसके भाई दिलदार मियाँ को म्युनिसिपैलिटी में चपरासी की नौकरी दी थी। ये लोग लेखक को पाषाणकालीन मूर्तियाँ तथा शिलालेख आदि चीजें देते रहते थे। मजूमदार साहब की जबरदस्ती पर वे लोग बिगड़ गए और फौजदारी पर आमादा हो गए। उन्होंने तर्क भी दिया यह शिलालेख इलाहाबाद के अजायबघर के लिए 25 रु. में बिक चुका है। इसे वे व्यास जी से पूछे बिना उठाने नहीं देंगे। यदि कोई ऐसा करेगा तो उसके साथ मारपीट करेंगे। मजूमदार ने इसकी थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दी, पर गुलजार मियाँ ने वह शिलालेख उनको ले जाने नहीं दिया। मजूमदार ने चिढ़कर घटना को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दीक्षित साहब को दिल्ली शिकायत लिख भेजी। वैसे तो दीक्षित साहब सीधे सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, पर उनके अंदर के अफसर ने इसे गंभीरता से लिया।

6. मैं संग्रह करता हूँ, आशिक नहीं। यही अंतर मुझमें और भाई कृष्णदास में है। वे संग्रहकर्ता भी हैं और आशिक भी। संग्रह कर लेने और उसे हरम (प्रयाग संग्रहालय) में डाल देने के बाद मेरा सुख समाप्त हो जाता है। भाई कृष्णदास संग्रह करने के बाद भी चीजों को बार-बार हर पहलू से देखकर उसके सुख-सागर में डूबते-उतरते रहते हैं। यदि संग्रहकर्ता आशिक भी हुआ तो भगवान ही उसकी रक्षा करे।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ से अवतरित हैं। लेखक पुरातत्व के महत्त्व की चीजों का संग्रह तो करता है पर उसके बाद उनके प्रति आसक्ति नहीं रखता।

व्याख्या : लेखक को प्राचीन मूर्तियाँ एवं अन्य चीजों के संग्रह का शौक तो है, पर वह उनका आशिक नहीं है। वह मूर्तियों को खोजकर उन्हें अपने संग्रहालय में जमा कर देता है। इसके विपरीत उनके मित्र भाई कृष्णदास ऐतिहासिक महत्त्व की चीजों का संग्रह तो करते ही हैं साथ ही उनके साथ गहरा लगाव भी रखते हैं। उनका अपनी चीजों के प्रति मोह अंत तक बना रहता है। उनका मोह आशिकी के स्तर तक चला जाता है। लेखक वस्तुओं का संग्रह करके, संग्रहालय में जमा करके, अपने सुख की इतिश्री मान लेता है।

इसके बाद वह उन वस्तुओं की कोई खास खोज खबर नहीं लेता था। उनका संग्रहालय एक हरम के समान था, जहाँ इधर-उधर से लाई रानियों (दासियों) को एकत्रित कर दिया जाता था। बाद में राजा कभी-कभार ही उनको देख पाता था। भाई कृष्पदास में दोनों गुण हैं। वे वस्तुओं का संग्रह भी करते हैं और उनके हर पहलू पर विचार करते रहते हैं। इसमें उन्हें सुख प्राप्त होता है। वे अपनी संग्रहित वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति रखते हैं। ऐसे व्यक्ति की रक्षा भगवान ही कर सकता है। उस व्यक्ति का जुनून किसी भी स्तर तक जा सकता है।

विशेष :

  1. लेखक ने अपनी तुलना भाई कृष्णदास से की है।
  2. संग्रह और आशिकी का अंतर स्पष्ट किया है।
  3. उर्दू शब्द ‘आशिकी’ का सटीक प्रयोग हुआ है।

7. मैं तो केवल निमित्त मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था। मैंने पुत्र को जन्म दिया। उसका लालन-पालन किया, बड़ा हो जाने पर उसके रहने के लिए विशाल भवन बनवा दिया, उसमें उसका गृहप्रवेश करवा दिया, उसके संरक्षण और परिवर्धन के लिए एक सुयोग्य अभिभावक डॉ. सतीशचंद्र काबा को नियुक्त कर दिया और मैंने संन्यास ले लिया।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित निबंध ‘कच्चा चिहुा’ से अवतरित है। यह निबंध ब्रजमोहन कास द्वारा रचित आत्मकथा का एक अंश है।

व्याख्या : लेखक ने अपने श्रमकौशल और प्रयासों से इलाहाबाद में एक विशाल एवं भव्य संग्रहालय स्थापित कर दिया। उसके लिए उसे काफी धन एवं भूमि की आवश्यकता थी, जिसे उसने अपने बलबूते पर एकत्रित कर दिखाया। इसके बावजूद यह लेखक की सदाशयता ही है कि वह इसका श्रेय स्वयं नहीं लेता। वह स्वयं को इस महान कार्य का निमित्त मात्र मानता है। वह इस महान कार्य के पीछे किसी अन्य की प्रेरणा को मानता है।

लेखक ने संग्रहालय को पुत्र के समान जन्म देकर इसका विकास किया और इसमें जमा सामग्री के रख-रखाव के लिए एक विशाल भवन का निर्माण करवा दिया। इसके बाद इस नव-निर्मित भवन में संग्रहालय का विधिवत् प्रवेश भी करवा दिया । अब इस विशाल संग्रहालय के कुशल संचालन के लिए तथा इसका उत्तरोत्तर विकास करने के लिए एक सुयोग्य अभिभावक की आवश्यकता थी। इस कार्य हेतु उसने एक सुयोग्य व्यक्ति डॉ. सतीशचंद्र काला की नियुक्ति कर दी। अब उसके कार्य की इतिश्री हो चुकी थी अतः उसने संन्यास ले लिया अर्थात् स्वयं को इससे मुक्त कर लिया।

विशेष :

  1. लेखक की कार्यक्षमता एवं योग्यता का पता चलता है।
  2. लेखक की विनम्रता झलकती है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

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