Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Summary – Ghananand Ke Kavitt / Savaiya Summary Vyakhya

रामचंद्रचंद्रिका Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Summary

घनानंद के कवित्त / सवैया – घनानंद – कवि परिचय

प्रश्न :
कवि घनानंव का संक्षिप्त जीवन-परिचय वेते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कविवर घनानंद उत्तर मध्यकाल की रीतिमुक्त श्रृंगार काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। ये प्रेमजीवी कवि हैं। इनके रोम-रोम में प्रेम बसा था। व्यक्तिगत जीवन में भी इन्होंने स्वच्छंद प्रेम का बीज बोया था।

जीवन-परिचय : घनानंद का जन्म 1673 ई. में हुआ माना जाता है। ये मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला के दरबार में मीर मुंशी थे। ये कायस्थ थे। कहते हैं कि ‘सुजान’ नामक एक नगरवधू पर ये आसक्त हो गए थे। सुजान राजनर्तकी थी। घनानंद राजदरबार में कविता सुनाते थे। एक बार बादशाह ने किसी बात पर नाराज होकर घनानंद को राजदरबार से निकाल दिया था। सुजान ने साथ चलने से इनकार कर दिया। तब वे विरक्त होकर ब्रज भूमि वृंदावन चले गए। वहाँ वे निंबार्क संप्रदाय के वैष्णव बन गए। सुजान के प्रति अगाध प्रेम को प्रदर्शित करते हुए उन्होंने सैकड़ों कवित्तों और सवैयों की रचना कर डाली। लगभग 1760 ई. में मथुरा में अहमदशाह दुर्रानी के आक्रमण के समय आक्रमणकारियों ने इनका वध कर डाला था।

काव्यगत विशेषताएँ : घनानंद के काव्य में स्वच्छंद प्रेम काव्यधारा की सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं, जैसे प्रेम की स्वच्छंद अभिव्यक्ति, आत्माभिव्यक्ति, भावात्मकता, व्यक्तिगत प्रेम की तीव्र अभिव्यक्ति, रीतिबद्ध शृंगार-वर्णन के स्थान पर स्वच्छंद प्रेम का वर्णन।

घनानंद के प्रेम में विरह और विषाद की छाया अधिक है। वे विरह में निमग्न प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं, आशा का दामन थामे रहते हैं-

रचनाएँ : यद्यपि घनानंद द्वारा रचित काव्य-ग्रंथों की संख्या 41 बताई जाती है, पर अब जो रचनाएँ मिलती हैं उनके नाम हैं-सुजानहित, सुजान सागर, प्रेम सरोवर, गोकुल विनोद, प्रिया प्रसाद, प्रेम पत्रिका आदि। ‘घनानंद ग्रंथावली’ में उनकी 16 रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद नाम से लगभग चार हजार की संख्या में कवित्त और सवैये मिलते हैं। इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना ‘सुजानहित’ है, जिसमें 507 पद हैं। इन पदों में सुजान के प्रेम, रूप, विरह आदि का वर्णन हुआ है।

“नहिं आवनि-औधि, न रावरी आस,
इते पर एक सी बाट चहौं।”

घनानंद नायिका सुजान का वर्णन अत्यंत रुचिपूर्वक करते हैं। वे उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं –

रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहू नहिं आनि तिहारिये॥

घनानंद प्रेम के मार्ग को अत्यंत सीधा-सरल बताते हैं, इसमें कहीं भी वक्रता नहीं है-

“अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।”

कवि अपनी प्रिया को अत्यधिक चतुरता दिखाने के लिए उलाहना भी देता है-

“तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं ।”

घनानंद अपनी प्रिया को प्रेम पत्र भी भिजवाता है, पर उस निष्ठुर ने उसे पढ़कर देखा तक नहीं-

“जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यो।”

रूप-सौंदर्य का वर्णन करने में कवि घनानंद का कोई सानी नहीं है। वह काली साड़ी में अपनी प्रिय नायिका को देखकर उन्मत्त सा हो जाता है। साँवरी साड़ी ने सुजान के गोरे शरीर को कितना कांतिमान बना दिया है-

स्याम घटा लिपटी थिर बीज की सौहैं अमावस-अंक उज्यारी।
धूम के पुंज में ज्वाल की माल सी पै द्वग-शीतलता-सुख-कारी॥
कै छबि छायौ सिंगार निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति त्यारी।
कैसी फबी घनआनन्द चोपनि सों पहिरी चुनि साँवरी सारी॥

घनानंद के काव्य की एक प्रमुख विशेषता है-भाव-प्रवणता के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वाभाविक वक्रता।
घनानंद का प्रेम लौकिक प्रेम की भाव-भूमि से ऊपर उठकर अलौकिक प्रेम की बुलदियों को छूता हुआ नज़र आता है, तब कवि की प्रिया सुजान ही परबह्ट का रूप बन जाती है। ऐसी दशा में घनानंद प्रेमी से ऊपर उठकर भक्त बन जाते हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

“नेही सिरमौर एक तुम ही लौं मेरी दौर,
नाहि और ठॉर, काहि साँकरे सम्हारिये।”

घनानंद का वियोग भृंगार वर्णन संयोग वर्णन से अधिक सुंदर और मार्मिक बन पड़ा है।
कलापक्ष : घनानंद भाषा के धनी थे। उन्होंने अपने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। रीतिकाल की यही प्रमुख काव्य भाषा थी। इनकी ब्रजभाषा अरबी, फारसी, राजस्थानी, खड़ी बोली आदि के शब्दों से समृद्ध है। इन्होंने सहज-सरल लाक्षणिक व्यंजनापूर्ण भाषा का प्रयोग किया है।

घनानंद ने लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से भाषा-सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए हैं। घनानंद ने अपने काव्य में अलंकारों का प्रयोग अत्यंत सहज ढंग से किया है। उनके काव्य में अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्र्रेक्षा एवं विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। ‘विरोधाभास’ घनानंद का प्रिय अलंकार है। आचार्य विश्वनाथ ने उनके बारे में लिखा है-

“विरोधाभास के अधिक प्रयोग से उनकी कविता भरी पड़ी है। जहाँ इस प्रकार की कृति विखाई वे, उसे निःसंकोच इनकी कृति घोषित किया जा सकता है।”

घनानंद की कविता लक्षणा प्रधान है। भावों के अनुरूप लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग इनकी भाषा की विशेषता है।
छंद-विधान की दृष्टि से घनानंद ने कवित्त और सवैये ही अधिक लिखे हैं। वैसे उन्होंने दोहे और चौपाइयाँ भी लिखी हैं।
रस की दृष्टि से घनानंद का काव्य मुख्यत: शृंगार रस प्रधान है। इसमें वियोग शृंगार की प्रधानता है। कहीं-कहीं शांत रस का प्रयोग भी देखते बनता है। घनानंद की भाषा में चित्रात्मकता और वार्गवदगधता का गुण भी आ गया है।

Ghananand Ke Kavitt / Savaiya Class 12 Hindi Summary

यहाँ कवि घनानंद के दो कवित्त तथा दो सवैये दिए जा रहे हैं। प्रथम कवित्त में कवि ने अपनी प्रेमिका सुजान के दर्शन की अभिलाषा प्रकट करते हुए कहा है कि सुजान के दर्शन के लिए ही ये प्राण अब तक अटके हुए हैं। दूसरे कवित्त में कवि नायिका से कहता है कि तुम कब तक मिलने को आनाकानी करती रहोगी। मुझ में और तुम में एक प्रकार की होड़-सी चल रही है। तुम कब तक कानों में रुई डालकर बैठी रहोगी, कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों तक पहुँचेगी ही। आगे प्रथम सवैया में कवि ने विरह और मिलन की अवस्थाओं की तुलना की है। प्रेमी कहता है कि संयोग के समय में तो हम तुम्हें देखकर जीवित रहते थे अब वियोग में अत्यंत व्याकुल रहते हैं। अंतिम सवैया में कवि कहता है कि मेरे प्रेम पत्र को प्रियतमा ने पढ़ा भी नहीं और फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया।

घनानंद के कवित्त / सवैया सप्रसंग व्याख्या

कवित्त –

1. बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
खरे अरबरनि भरे है उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को॥
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास है कै,
अब ना घिरत घर आनंद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि के पयान प्रान,
चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को॥

प्रसंग : प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है। इसके रचयिता रीतिकाल की स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद हैं। घनानंद दरबारी कवि थे। वे दरबार की नर्तकी सुजान पर आसक्त थे। किसी बात पर नाराज होकर बादशाह ने इन्हें दरबार से निकाल दिया था और वे वृंदावन में निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित होकर काव्य रचना करने लगे। उनके मन में सुजान के लिए प्रेम अंत तक बना रहा। इस कवित्त में कवि ने अपनी प्रेयसी सुजान के दर्शन की अभिलाषा प्रकट करते हुए कहा है कि प्रिय सुजान के दर्शन के लिए ही ये प्राण अब तक अटके हुए हैं।

व्याख्या : कवि बताता है – हे सुजान ! बहुत दिनों की अवधि बीत गई अर्थात् बहुत समय बीत गया। तुम्हारी प्रतीक्षा में ही मेरे प्राण अटके हुए थे। मुझे आशा थी कि तुम आकर अवश्य दर्शन दोगी। अब मेरे प्राण बहुत हड़बड़ी में हैं अर्थात् इस संसार से उठ जाने को हैं। अब मैं अपने प्राणों को रोक पाने में असमर्थ हो रहा हूँ। अब तक छैल-छबीली प्रिया (सुजान) ने कई बार आने को कहा था पर वह नहीं आई। मैं प्रतीक्षा ही करता रह गया। अब तो समय आ गया है कि तुम आकर मेरा सम्मान रख लो अन्यथा संसार में मेरी बदनामी हो जाएगी। तुम्हारी झूठी बातों पर विश्वास करके मैं बहुत उदास हो गया हूँ। अब मैं इनसे ऊब चुका हूँ। अब तो मन को तसल्ली देने वाले बादल भी नहीं घिरते और न मुझे आनंद मिल पाता है। अब तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि मेरे प्राण कंठ तक आ लगे हैं। ये कभी भी प्रस्थान कर सकते हैं। ये प्राण अभी तक इसलिए अटके हुए हैं कि ये सुजान का संदेश लेकर ही जाना चाहते हैं।

विशेष :

  • कवि की अपनी प्रेयसी से मिलने की उत्कट लालसा अभिव्यक्त हुई है।
  • ‘चाहत चलन’, ‘घिरत घर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘कहि कहि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • घर आनंद में श्लेष अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • वियोग श्रृंगार रस का मार्मिक परिपाक हुआ है।
  • कवित्त छंद प्रयुक्त है।

2. आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौं ?
कहा मो चकति दसा त्यों न वीठि डोलि है ?
मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,
कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
जान घनआनैंद यों मोहिं तुम्है पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौन धौ मलोलिहै।
रुई दिए रहौगे कहाँ लौ बहरायबे की ?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै।

शब्दार्थ : आनाकानी = टाल-मटोल। आरसी – स्त्रियों द्वारा अँगूठे में पहना जाने वाला शीशा जड़ा आभूषण। मौन = चुप। कूकभरी = पुकार भरी। पैज = बहस। बहरायबे = बहरा बनने का।

प्रसंग : प्रस्तुत कवित्त रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद द्वारा रचित है। इस कवित्त में कवि अपनी प्रेयसी सुजान से कहता है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करती रहोगी। मुझमें और तुममें एक प्रकार की होड़ सी चल रही है। तुम कब तक कानों में रुई डाले बैठी रहोगी। कभी न कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों तक पहुँचेगी ही।

व्याख्या : कवि अपनी प्रेमिका सुजान को संबोधित करते हुए कह रहा है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करते हुए अपनी आरसी (अँगूठी के शीशे) को देखते रहने का बहाना करती रहोगी ? इसमें तो तुम्हें अपना ही प्रतिबिंब दिखाई देता है। तुम कब तक मेरी ओर दृष्टि नहीं डालोगी ? मेरी दशा की ओर तुम्हारी नजर क्यों नहीं जाती ? मैं मौन होकर देख रहा हूँ कि तुम कब तक अपनी जिद्द पर अड़ी रहती हो। तुम जिद्दी हो तो मैं भी कम जिद्दी नहीं हूँ।

तुम्हारी जिद्द न बोलने की है तो मेरी जिद्द बुलवाने की है। तुम्हें मुझसे बात करनी ही होगी। मेरी कूकभरी मूकता अर्थात् चुप्पी तुम्हें बुलवाकर रहेगी। तुम्हें अपना हठ छोड़ना होगा। तुम यह जानना चाहती हो कि पहले कौन बोलता है। तुमने अपने कानों में रुई डाल रखी है। इस प्रकार कब तक न सुनने का बहाना करती रहोगी? कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों तक पहुँचकर रहेगी ? तब तुम्हें मेरी बात सुननी होगी।

विशेष :

  • प्रिय मिलन की आशा बलवती प्रतीत होती है।
  • ‘कौौगे कौलौ’, ‘पैज परी’, ‘टेक टरै’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘कान में रुई देना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
  • ‘कूक भरी मूकता’ में मन की गहराई का बोध होता है।
  • ‘आनाकानी आरसी निहारिबों में अन्योक्ति का प्रयोग है।
  • भाषा : ब्रज।
  • छंब : कवित्त।
  • रस : वियोग भृंगार रस।

सवैया –

1. तब तो छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित-तोष के तोष सु प्रान पले, विललात महा दुःख दोष भरे।
घनआनँद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे, अब आनि के बीच पहार परे॥

शब्दार्थ : छवि पीवत = शोभा का पान करते हुए। लोचन $-$ नेत्र। तोष = संतोष। बिललात = व्याकुल। मीत = मित्र।

प्रसंग : प्रस्तुत सवैया रीतिकाल की स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद द्वारा रचित है। कवि की प्रेयसी सुजान उससे रूठकर चली गई है। इस सवैये में कवि मिलन और विरह की अवस्थाओं की तुलना कर रहा है।

व्याख्या : कवि सुजान को संबोधित करते हुए कहता है कि संयोग काल में तो मैं तुम्हें देखकर जीवित रहता था और अब वियोग काल में अत्यंत व्याकुल रहता हूँ। अब तो मिलन काल की बात सोचने में ही नेत्र जले जाते हैं। तब तो ठृदय में संतोष के कारण प्राण पलते थे अब वियोग में व्याकुलता के बढ़ने के कारण महादुःख झेलना पड़ रहा है। यह दोषों से भरा हुआ है। कवि घनानंद कहते हैं कि मनमीत सुजान के बिना सभी प्रकार के सुख-साज टल गए हैं अर्थात् सुख दूर भाग गए हैं। मिलनावस्था में तो सुजान के गले का हार पहाड़ के समान बाधक लगता था। (दोनों के मिलन के बीच में आ जाता था।) अब तो वियोगावस्था में दोनों के बीच पहाड़ ही खड़े हो गए हैं। अब दोनों का मिलन असंभव-सा हो गया है।

विशेष :

  • मिलनावस्था के स्मरण में स्मृति बिंब साकार हो गया है।
  • मिलन और वियोग की तुलनात्मक अवस्थाएँ प्रभावी बन पड़ी हैं।
  • प्रिय सुजान की अनुपस्थिति में सभी सुख-साधन व्यर्थ प्रतीत होते हैं।
  • ‘सुख साज समाज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • छबि पीवत (शोभा रूपी अमृत) रूपक अलंकार है।
  • ‘हार पहार से’ में उपमा अलंकार है।
  • अंतिम पंक्ति में यमक अलंकार की प्रतीति होती है।
  • भाषा : ब्रज।
  • छंव : सवैया।
  • रस : विंयोग शृंगार रस।

2. पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ।
ताही के चारु चरित्र बिचित्रनि यों पचिकै रचि राखि बिसेख्यौ।
ऐसो हियो हितपत्र पवित्र जो आन-कथा न कहूँ अवरेख्यौ।
सो घनआनँद जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।।

शब्दार्थ : पूरन = पूर्ण। पन = प्रण। जा मधि = जिसके बीच। लेख्यौ = लिखा। ताही = उसके। चारु चरित्र = सुंदर चरित्र। पचिकै = पचकर, थककर। हियो = हुदय। हितपत्र = हृदय का प्रेमपत्र। आन कथा = अन्य बात। अवरेख्यौ = अंकित किया, लिखा। अजान = अनजान। टूक = टुकड़े। बाँचि = पढ़कर। न देख्यौ = नहीं देखा।

प्रसंग : प्रस्तुत सवैया रीतिकाल की वियोग बृंगार काव्यधारा के प्रमुख कवि घनानंद द्वारा रचित है। कवि ने अपनी प्रेयसी सुजान को प्रेमपत्र लिखकर उसके प्रति प्रेम का प्रकटीकरण किया, पर उस प्रियतमा ने उसे पढ़ा तक नहीं और फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। यहाँ कवि प्रिया की निष्ठुरता को व्यंजित कर रहा है।

व्याख्या : कवि कहता है- मैंने अपने पूर्ण प्रेम के महामंत्र को बहुत सोच-विचार कर और उसके श्रेष्ठ को याद, बड़े यत्नपूर्वक एक प्रेमपत्र अपनी प्रिया को लिखा। मैंने इसमें थक-थक कर उसके सुंदर चरित्र की विचित्रता का गुणगान किया था। मैंने इसका विशेष ध्यान रखा था। इस हृदय रूपी प्रेमपत्र में किसी अन्य कथा का कोई उल्लेख न था अर्थात् उसके रुष्ट होने का कोई कारण उपस्थित न था। ऐसी प्रेम कथा कहीं अन्यत्र नहीं लिखी गई थी। यह पवित्र प्रेमकथा थी लेकिन उस निष्ठुर जान अर्थात् सुजान (कवि की प्रेयसी) ने उस पत्र को पढ़कर भी नहीं देखा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

पत्र के टुकड़े करना कवि के हृदय के टुकड़े होना है। वास्तव में यह हुदय रूपी पत्रिका ही थी। कवि की प्रेयसी बड़ी निष्ठुर निकली। उसने कवि की बात को पढ़ने-समझने का कोई प्रयास तक नहीं किया।

विशेष :

  • इस सवैये में मानिनी नायिका का वर्णन है जो अपने प्रिय से बुरी तरह रूठी हुई है।
  • ‘हियौ हितपत्र’ में रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
  • अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है- ‘पूरन प्रेम’, ‘मंत्र महा’, ‘सोधि सुधारि’, ‘ चारु चरित्र’, ‘रचि राखि’, ‘हियौ हितपत्र’ आदि में।
  • भाषा : ब्रज
  • छंद : सवैया
  • रस : वियोग शृंगार रस।

Hindi Antra Class 12 Summary

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